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Wednesday, June 30, 2010

पोस्ट कार्ड का जन्म दिन

पोस्टकार्ड का जन्मदिन और गुम होते संपादक के नाम पत्र
मनोज कुमार

आज महज संयोग है कि जब मैं संपादक के नाम पत्र और पोस्टकार्ड की महत्ता पर लेख लिखने बैठा तभी पता चला कि आज एक जुलाई को पोस्टकार्ड का न केवल जन्म हुआ था बल्कि उसने अपने जन्म के सौ साल पूरे कर लिये हैं। पोस्टकार्ड हर आदमी के जीवन में बहुत मायने रखता है उसी तरह जिस तरह आज हर जेब के लिये मोबाइल फोन जरूरी हो गया है। इंटरनेट के बिना हमारा काम ही नहीं चलता है और टेलीविजन तो जैसे सांस लेने के लिये जरूरी है। इन आधुनिक तकनीकों के बावजूद पोस्टकार्ड की जरूरत कभी खत्म ही नहीं हुई। इस छोटे से कार्ड को खरीदने के लिये इस महंगाई के दौर में भी मात्र पचास पैसे खर्च करने होते हैं और इस पर कोई बिजली का खर्च नहीं होता है और न ही इसके लिये कोई कम्प्यूटर जैसी चीज की जरूरत होती है। मुझे लगता है कि पत्रकारिता में पोस्टकार्ड एक प्राथमिक कक्षा की तरह ही है जहां भावी पत्रकार अपना पहला सबक सीखते हैं। आइए इस पर थोड़ा विस्तार से बात करें।
अजय शर्मा मेरे दोस्त हैं । इन दिनों एनडीटीवी में समाचार संपादक के पद पर तैनात हैं। अपने आरंभिक दिनों में हम दोनों देशबन्धु के लिये लिखते थे। वे ग्वालियर से खबरें भेजा करते थे और मैं पहले रायपुर और बाद में भोपाल में देशबन्धु मंे बतौर उपसंपादक उन्हें एडिट किया करता था। मैं दैनिक देशबन्धु से भोपाल से निकल रहे साप्ताहिक देशबन्धु में आया था। यहीं हम दोनों की मित्रता हुई। लगभग पन्द्रह बरस से ज्यादा हो गये हमारी पहचान और दोस्ती को। एक दिन मैंने उनसे आग्रह किया कि समागम के लियेे अपनी लिखी पहली खबर की यादों को तफसील से लिखें। उन्होंने मेरे आग्रह को तो माना ही बल्कि जो लिखा, उसने मुझे एकबारगी पत्रकारिता के बरक्स कुछ और सोचने का विषय दे दिया। उन्होंने अपनी यादों में लिखा कि उनके द्वारा लिखा गया संपादक के नाम पत्र कैसे नईदुनिया में प्रकाशित हुआ और उस पत्र के कारण वे अपने शहर में अलग से पहचाने गये। यही नहीं, पत्र में लिखी गयी समस्या का भी तत्काल निदान हो गया। मैंने भी अपने आरंभिक दिनों में संपादक के नाम पत्र लिखा करता था। कभी एक कॉलम में तो कभी दो कॉलम में और कभी बहुत ही संपादित कर प्रकाशित हुआ करता था। इन प्रकाशित पत्रों को सम्हाल कर ऐसे रखते थे मानो किसी बैंक की पासबुक हो। संपादक के नाम पत्र लिखने की आदत बाद के सालों में भी बनी रही और कुछ पत्रिकाआंेे के
लेख/रिपोर्ताज पर अपनी प्रतिक्रिया छपने के लिये भेजता रहा। मजा तो यह था कि पत्रकारिता के कई साल गुजर जाने के बाद भी संपादक के नाम पत्र में अपना छपा नाम देखकर वही आनंद मिलता था, जो पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में मिलता था।
खैर, मुद्दे की बात पर आता हूं। अजय ने जब संपादक के नाम पत्र का उल्लेख किया तो मैं अखबारांे और पत्रिकाओं में तलाश करता रहा लेकिन काफी अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अब संपादक के नाम पत्र भेजने में किसी की दिलचस्पी नहीं रही। पाठक अखबारों से लगातार दूर होेते गये और उनकी प्रतिक्रिया के अभाव में पाठक और अखबार के बीच दूरी बनती जा रही है। किसी भी प्रकार का कार्य किया जाए उस पर प्रतिक्रिया आना जरूरी होता है और यही प्रतिक्रिया बताती है कि हम कितने सफल या असफल हैं और समाज हमारे बारे में क्या सोचता है। पत्रकारिता के लिये तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि आखिर हमारे लिखेे का समाज पर क्या असर हो रहा है और लोग हमारी लिखी चीजों को गंभीरता स ेले रहे हैं या नहीं, आदि-इत्यादि बातों का पता चलता है। एक समय था जब प्रतिक्रिया में सैकड़ों की तादात में पत्र आ जाते थे। चूंकि पोस्टकार्ड का आकार छोटा होता है इसलिये इसमें लिखी गयी बातें भी सारगर्भित होती थी। थोड़े शब्दों में अधिक लिखा जाता था। संभवतः मेरे समकालीन पत्रकारों को ज्ञात होगा कि संपादक के नाम पत्र में छपी समस्या अथवा किसी मुद्दे को उभारे जाने पर शासन प्रशासन में न केवल प्रतिक्रिया होती थी। अजय शर्मा का संपादक के नाम लिखे गये पत्र में उन्होंने इसी किस्म की बात को याद किया है।
आधुनिक समय में समय और स्थान की कमी होती जा रही है तब पोस्टकार्ड और भी महत्वपूर्ण हो गया है। यह केवल प्रतिक्रिया लिखने के लिये नहीं बल्कि उन नवोदित पत्रकारों को यह सीखने के लिये कि एक छोटे से पोस्टकार्ड में हम अपनी बात कितने प्रभावी ढंग से लिख सकते हैं। मैं जब कभी मीडिया के विद्यार्थियों के बीच जाता हूं तो पोस्टकार्ड ले जाना नहीं भूलता। उन्हें इसे पत्रकारिता की प्राथमिक कक्षा के रूप् में संबोधित करते हुए इसके महत्व को बताता हंू। ई-मेल और मोबाइल के जरिये बात हो रही है, एक्शन-रिएक्शन लिये दिये जा रहे हैं लेकिन इनका दस्तावेजीकरण नहीं हो पा रहा है। पोस्टकार्ड एक प्रकार का दस्तावेज हुआ करता था। पोस्टकार्ड के लिये बिजली की भी जरूरत नहीं है। एक रुपये के पेन से भी काम चल जाता है। आज पोस्टकार्ड के जन्मदिन पर पत्रकारिता में इसके महत्व को आंकने की जरूरत है।

मीडिया और महिलाये


लीडरशीप की नयी परिभाषा गढ़ती ग्रामीण महिलाएं

मनोज कुमार

ध्यप्रदेश में पंचायतीराज के डेढ़ दशक बाद महिला लीडर अब पूरी तरह से चुनौतियों का सामना करने के लिये तैयार दिख रही है। अनेक किस्म की दिक्कतों के बीच वे अपने लिये राह बना रही हैं। सत्ता पाने के बाद उन्हें सरूर (सत्ता का नशा) नहीं हुआ बल्कि सत्ता से वे सत (सच) का रास्ता बना रही हैं। यह स्थिति राज्य के दूरदराज झाबुआ से लेकर मंडला तक के ग्राम पंचायतों में है तो राजधानी भोपाल के आसपास स्थित गांवों की महिला लीडरों का काम अद्भुत है। ये महिलाएं कभी चुनौतियों को देखकर घबरा जाती थीं तो अब चुनौतियों का सामना करने के लिये ये तैयार दिख रही हैं। पंचायतीराज का पूरा का पूरा परिदृश्य बदला बदला दिखायी देने लगा है। कभी गांवों में महिलाओं के नाम पर पुरूषों की सत्ता हुआ करती थी और परिवार वालों का दखल था, अब वहां सिर्फ और सिर्फ महिलाआंे का राज है। वे चुनी जाती हैं, राज करती हैं और समस्याआंे से जूझती हुई गांव के विकास का रास्ता तय करती हैं। किरण बाई आदिवासी महिला है। वह तेंदूखेड़ा में रहती है। इस बार के चुनाव में वह बाबई चिचली जनपद की अध्यक्ष चुनी गयीं। तेंदूखेड़ा और बाबई चिचली के बीच की दूरी लगभग तेरह किलोमीटर है। जनपद अध्यक्ष होने के नाते उन्हें नियमानुसार वाहन की सुविधा मिलनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। जनपद अध्यक्ष होने के नाते किरण बाई ने जनपद पंचायत के सीईओ से इसी साल 2010 के अप्रेल महीने में वाहन देने का अनुरोध किया तो उन्हें किराये पर वाहन लेने की अनुमति दी गई। किरण बाई को लगा कि उनकी मुसीबत खत्म हो गई और वे अपने काम को इत्मीनान के साथ पूरा कर सकेंगी लेकिन उन्हें इस बात का इल्म नहीं था कि अभी उनकी मुसीबत खत्म नहींं हुई है। सीईओ के आदेश पर वाहन किराये पर लिया और अपना काम निपटाने निकल पड़ी। महीना खत्म होते होते जब किरणबाई ने भुगतान के लिये बिल प्रस्तुत किया तो उसे किनारे कर दिया गया और कहा गया कि अभी राशि नहीं है। जनपद अध्यक्ष के लिये अब दोहरी मुसीबत है। पहले तो गाड़ी नहीं थी, अब उधारी उनके मत्थे चढ़ गयी है। सीईओ कहते हैं कि उनके पास ही गाड़ी नहीं है तो जनपद अध्यक्ष को कहां से गाड़ी की सुविधा दें लेकिन पंचायत कानून में साफतौर पर प्रावधान है कि जनपद अध्यक्ष को वाहन सुविधा उपलब्ध करायी जाए। बाबई चिचली जनपद की अध्यक्ष किरण बाई के हौसले को सीईओ की इस बेरूखी से कोई फर्क नहीं पड़ा। वह अपने पति के साथ रोज तेरह किलोमीटर का सफर सायकल से तय कर जनपद मुख्यालय जाती हैं। दिन भर काम निपटाने के बाद वह वापस अपने पति के साथ घर लौट आती हैं। अपने जीवनसाथी के इस सहयोग से जहां किरण बाई के हौसलों को नयी ऊंचाई मिली है। किरणबाई एक मिसाल है उन महिलाओं के लिये जो सुविधाओं के अभाव में अपना काम नहीं कर पाती हैं या दिक्कतों का रोना रोते हुए समय गंवा देती हैं। किरणबाई सुविधा नहीं मिलने से दुखी हैं लेकिन निराश नहीं। वे अपना दायित्व समझती हैं और उसे पूरा करने के लिये आगे आ रही हैं। किरणबाई राज्य की पंचायतों की अकेली लीडर नहीं है बल्कि ऐसे अनेक गुमनाम महिला लीडर हैं जो इसी साहस और ताकत के साथ सत्ता की बागडोर सम्हाले हुए हैं। इन महिला लीडरों को समाज सलाम करता है। मध्यप्रदेश में स्त्री ग्रामीण सत्ता के प्रति पुरूषों में भी भाव बदला है। अब उन्हांेंने किनारा कर लिया है और इसका प्रमाण यह है कि राज्य के अनेक पंचायतों में सौफीसदी सत्ता महिलाओं की बन गयी है। पचास फीसदी आरक्षण के कारण और पचास फीसदी स्वयं पुरूषों द्वारा सत्ता छोड़ने के कारण। हालांकि अभी इसका प्रतिशत कम है लेकिन उम्मीद की एक किरण जागी है। महिला लीडरों के लिये चुनौतियां कम नहीं हुई है। अनेक ऐसे उदाहरण मिले हैं जहां पंचायतोंे में महिला लीडरों को उनके बुनियादी अधिकार एवं सुविधाओं से वंचित रखा गया है। नियमों का हवाला, आर्थिक तंगी और अपरोक्ष रूप महिला लीडर को परेशान करने की मंशा के चलते रोज नयी चुनौतियां दी जा रही हैं। इन चुनौतियों से महिला लीडर परेशान होने के बजाय रोज नयी इबारत लिख रही हैं।

Saturday, June 26, 2010

paetish saal bad

कहां से चले थे और कहां पहुंच गए हम
मनोज कुमार
पैंतीस बरस बाद जब हम भारतीय इतिहास के आपातकाल के उन दिनों को याद करते हैं तो मन एक बार फिर कसैला हो जाता है किन्तु साथ ही गर्व करते हैं कि तत्कालीन सरकार के इस तानाशाही रवैये का हिन्दी पत्रकारिता ने पुरजोर विरोध किया था। जैसा कि होता है आपातकाल के दरम्यान सबसे पहला प्रहार पत्रकारिता पर ही हुआ था। अखबारों के दफ्तरों में पहरा बिठा दिया गया था। अखबार छपने के पहले सरकारी नुमाइंदे उसे पढ़ते, जांचते और फिर छपने के लिये दिया जाता था। अखबारों की यह मजबूरी थी किन्तु इस मजबूरी के चलते हथियार नहीं डाला गया बल्कि पूरी ताकत के साथ लड़ा गया। यह वह समय था जब अखबारों की तादाद कम थी लेकिन जो भी थे, प्रभावशाली। एक एक शब्द हथौड़ी की तरह चोट कर जाता था। समाज अखबार में छपी खबरों को गंभीरता से लेता था। समय गुजरता गया। साल दर साल आपातकाल की बात पुरानी होती गयी। नयी पीढ़ी को तो बहुत कुछ पता ही नहीं। इस बीच पत्रकारिता से मीडिया का स्वरूप बन गया और वह दिन ब दिन विस्तार पा रहा है। आकाशीय चैनलों की धूम है और अखबारों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है।
खैर, इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि पत्रकारिता इतिहास रचती है। आपातकाल का पुरजोर विरोध कर पत्रकारिता ने यह जता दिया था। जिस पत्रकारिता ने अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर किया था, उसमें इतनी ताकत बची है कि वह बार बार और हर बार ऐसे तानशाह को मुंहतोड़ जवाब दिया। इस बार जब आपातकाल के पैंतीस बरस हुए तो अखबारों में विशेष सामग्री दी गई। यह एक कोशिश थी जिसे अच्छा ही कहा जाएगा। इतिहास से बेखबर पीढ़ी को आपातकाल के बारे में जानने और समझने का अवसर मिला है। आपातकाल की जो गूंज थी, इन पैंतीस सालों में वह धीमी पड़ गयी है तो पत्रकारिता के तेवर भी बदले हुए हैं। पैंतीस बरस पहले शायद पत्रकारिता को लेकर कभी कोई सवाल या संशय की स्थिति नहीं बनी। अखबार यानि सच और सच का मतलब सिर्फ सच हुआ करता था किन्तु इन सालों में इस सच का मतलब बदलता हुआ दिख रहा है। समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाली पत्रकारिता की वि·ासनीयता पर कभी आंच नहीं आयी और ऐसा होता तो शायद न कभी अंग्रेज भारत छोड़ कर जा पाते और न ही आपातकाल का अंत हो पाता लेकिन आज ऐसा हो रहा है।
पत्रकारिता को लेकर सवाल पर सवाल दागे जा रहे हैं। पत्रकारिता की वि·ासनीयता कटघरे में है। अवि·ाास के इस दौर में पत्रकारिता को विस्तार भी मिला है किन्तु एक उत्पाद के रूप में। पैंतीस बरस पहले भी अखबार व्यवसायिक थे और इसके लिये एक पन्ना तय होता था जिसमें व्यापार की खबरें छपा करती थी किन्तु अब एकाध पन्ने को छोड़कर पूरा अखबार व्यापार करने लगा है और इसी के साथ खबरों की वि·ासनीयता घटने लगी है। कंटेंट को लेकर अब अखबारों में कोई चिंता नहीं दिखती है बल्कि कलेवर को लेकर चिंता ज्यादा है। सामाजिक सरोकार की खबरें हाशिये पर है और लाइफस्टाइ, फैशन के लिये पूरा पूरा पन्ना छापा जा रहा है। पैंतीस साल के इस सफर में हिन्दी पत्रकारिता की उपलब्धि यह रही कि अंग्रेजी के अखबारों और पत्रिकाओं को हिन्दी में आना पड़ा लेकिन यह उपलब्धि सही मायने में बाजार की मानी जानी चाहिए क्योंकि हिन्दी का बाजार बड़ा है। इस बात को अंग्रेजी प्रबंधन ने खूब जाना और वे हिन्दी पर अहसान थोपते हुए हिन्दी बाजार में आ गये। अपने आने के साथ साथ वे पत्रकारिता के साथ बाजार का व्यवहार करने लगे। अखबारों में उपहारों की बरसात होने लगी। बस वैसे ही जैसे बाजार में उपलब्ध अन्य उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिये कोई कारोबारी करता है। उपहार स्कीम ने भी अखबारों की प्रतिष्ठा एवं प्रभाव को कम किया है क्योंकि जिन अखबारों को उसके कंटेंट के लिये सम्हाल कर रखा जाता था, आज वही अखबार सहेजे जा रहे हैं उपहार पाने के लिये कूपन बटोरेने के खातिर।
इन सालों में हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार होता गया। हर बड़े कारोबारी घराने को यह सुहाने लगा कि वह भी अपना एक अखबार या पत्रिका निकाल ले। कुछ इस कोशिश में सफल भी हुए तो अधिकांश केवल ढो रहे हैं। अखबारों के नाम भी विचित्र से रखे जाने लगे हैं। कुछ सुझा नहीं तो अपनी ही संस्था के नाम के आगे पीछे कुछ जोड़जाड़ कर आरंभ कर दिया। मोटी तनख्वाह देकर कुछ दक्ष पत्रकारों को साथ ले लिया और बाकि का स्टाफ नौसिखियों से भर लिया गया। कंटेंट का तो इन अखबारों में कोई सवाल ही नहीं था। साधन की कमी नहीं थी सो कारोबारियों के अखबार साध्य में लग गये। राजनीति और प्रशासन में अखबार के जरिये पहुंच और पकड़ बनाने लगे। जिन्हें कभी अपने कारोबार के काम को सहज बनाने के लिये भेंट देना होती थी, उसमें उन्हें पूरी तरह छूट या रियायत मिलने लगी। उनके अखबार निकालने का मकसद यही था और यह पूरा होने लगा।
आपातकाल में अखबार कहर ढा रहे थे, आज वही अखबारों पेडन्यूज के मामले में विवादों के घेरे में है। जांच चल रही है, बातें हो रही है, चेतावनी मिल रही है और नजरें भी रखी जा रही हैं। कितने दुर्भाग्य की बात कि कल जो पत्रकारिता समाज के विरोधियों पर नजरें रखती थी, आज उस पर दूसरों की नजरें हैं। पैसे लेकर खबर छापने के कारण पत्रकारिता की वि·ासनीयता पर भी आंच आयी है। पैंतीस बरस बाद इतिहास के काले पन्ने को याद कर हम सिहर उठते हैं लेकिन आज जो पत्रकारिता के हालात हैं, वह भी सिहरन पैदा करती है। इन पैंतीस सालों में हिन्दी पत्रकारिता में सम्पादक नाम की संस्था का लोप होता जा रहा है। मालिक स्वयं सम्पादक बन बैठे हैं और कानूनी बाध्यता झेलने के लिये एक कार्यकारी सम्पादक बिठा दिया जाता है। यह बदलाव भी पीड़ादायक है।
इन पैंतीस सालों में मंझोले किस्म के कस्बाई अखबार जरूर उम्मीद की रोशनी जगाते हैं। बड़े समाचार समूहों के मल्टीएडीशन अखबारों के चलते एक शहर की खबर दूसरे शहर में नहीं पहुंच पा रही है किन्तु सीमित संसाधनों में निकलने वाले अखबार इस कमी को पूरा कर रहे हैं। उनके पास आम आदमी की पीड़ा छापने के लिये अभी जगह बाकि है क्योंकि उन्हें मल्टीनेशनल कंपनी के लुभावने विज्ञापन नहीं मिल पा रहे हैं। पैंतीस बरस की हिन्दी पत्रकारिता नाउम्मीद ही करती है। हालांकि इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता में घटाघोप अंधेरा छा गया है।

Thursday, June 24, 2010

aapatkal

यादें आपातकाल की और पत्रकारिता के विद्यार्थी
मनोज कुमार

आज अखबारों को देखकर अच्छा लगा कि लगभग सारे अखबारों ने किसी न किसी रूप में आपातकाल को याद किया है। आपातकाल भारतीय इतिहास का एक काला पन्ना है और इसके बारे में जानना सबके लिये बहुत जरूरी है। अखबारों में इस विषय पर प्रकाशित लेख और टिप्पणियों से पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी को समझने और सीखने का अवसर मिलेगा। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ जब मैं रूबरू होता हूं तो मुझे यह जानकर हैरानी होती है िकवे अपने ही देश के इतिहास से नावाकिफ हैं। आपातकाल के बारे में उनकी जानकारी शून्य है। उन्हें यह तो पता ही नहीं है कि देश में आपातकाल किस सन में लगा था। आपातकाल किसने लगाया था और क्यों लगा था, इसके बारे में जानकारी का तो कोई सवाल ही नहीं था। कदाचित कुछ विद्यार्थियों को आपातकाल क्या होता है, यह भी शायद पता नहीं होगा, किन्तु इसका खुलासा नहीं हो पाया। थोड़े से विद्यार्थी ऐसे भी थे जिन्हें अपने इतिहास की जानकारी थी, किन्तु उनका प्रतिशत बेहद कम है। अजानकारी की यह स्थिति एक सेमेस्टर के विद्यार्थियों की नहीं है बल्कि यह समस्या लगातार बनी हुई है। यह पत्रकारिता के लिये घातक है। जो विद्यार्थी अखबार और टेलीविजन की कमान सम्हालने आये हैं, जो कल के पत्रकार होंगे उनके लिये तो यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपने बीते हुए कल को जानें। उनकी जानकारी इसलिये भी पुख्ता होना चाहिए क्योंकि उनकी जानकारी से समाज शिक्षित होता है। मीडिया की प्राथमिक जिम्मेदारी तीन खंडों में बांटी गयी है जिसमें समाज को सूचना देना, शिक्षित करना और उनका मनोरंजन करना है। ऐसे में वर्तमान में काम कर रहे पत्रकार हों या इस विधा में पारंगत हो रही नवागत पीढ़ी, उन्हें आपातकाल जैसे हर बड़े और जरूरी घटनाक्रम के बारे में विस्तार से जानना चाहिए। यही नहीं, इन घटनाक्रम के बाद देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में हुए बदलाव के बारे में अधिकाधिक जानना चाहिए। पत्रकारिता में बीता हुआ कल बहुत मायने रखता है। आज की स्थिति को बताने के लिये अथवा तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये बीते हुए कल को जानना बेहद जरूरी होता है। यह जाने बगैर कि कल भारत की स्थिति क्या थी, आज के भारत के विकास की मीमांसा करना लगभग मुश्किल है और जो किया जाता है, वह सतही है। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये आज का अखबार बेहद महत्वपूर्ण है। भोपाल के अखबारों ने अपनी अपनी तरह से आपातकाल की व्याख्या की है और आज के संदर्भ में कुछ नये तथ्यों और नई समस्याओं पर रोशनी डाली है। नईदुनिया ने आपताकाल को याद करते हुए राजेन्द्र माथुर के आलेख को प्रकाशित किया है। नईदुनिया ने आपातकाल के विरोध में सम्पादकीय हिस्से को रिक्त छोड़ दिया था। यह विरोध का अनोखा तरीका था जिसे आज की भाषा में गांधीगिरी कहा जा सकता है। इतिहास को जानने और इसे संग्रह करने के लिये पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये बेहतर अवसर है। वरिष्ठ पत्रकार एवं सम्पादक श्रवण गर्ग ने आपातकाल को याद करते हुए भास्कर के पहले पन्ने पर बेहद ज्वलंत मुद्दे को रेखांकित किया है। खाप पंचायतों के बारे में उनकी टिप्पणी सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता का आइना है। आपातकाल के साथ साथ आज की परिस्थिति का विश्लेषण पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये लगभग एक पाठ है और जिसे हर विद्यार्थी को पढ़ा जाना चाहिए। पत्रिका और अन्य अखबारों ने भी आपातकाल और वर्तमान स्थिति की तुलना करते हुए काफी कुछ लिखा है।
अभी हाल ही में भोपाल गैस त्रासदी को लेकर भी अखबारों ने जो विशेष सामग्री प्रकाशित की है, वह पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये पठनीय एवं संदर्भ सामग्री के रूप् में संग्रहणीय है। एक अच्छे पत्रकार के पास संदर्भ सामग्री का जखीरा होना चाहिए जिसे वह समय समय पर उपयोग कर सके। संदर्भ सामग्री के अभाव में अधूरी और अपुष्ट जानकारी दी जाती है जिससे न केवल पत्रकार की प्रतिभा प्रभावित होती है बल्कि उसकी विश्वसनीयता भी। पुस्तकालय से दूर होते विद्यार्थियों को वापस पुस्तकालय की ओर लौटने की जरूरत है और तब तक प्रतिदिन के अखबारों में समसामयिक विषयों पर प्रकाशित होने वाली सामग्री के संग्रहण और संचयन की प्रवृत्ति डाल लेनी चाहिए। (फोटो गूगल से साभार)

Media ka Roal


गैस त्रासदी और मीडिया
मनोज कुमार

पच्चीस बरस पहले दो-तीन दिसम्बर की दरम्यानी रात जब मिथाइल आयोसायनाइट ने भोपाल में तबाही मचायी थी तब और आज के भोपाल का चेहरा बदल गया है। बदलाव तो तबाही के थोड़े सालोें बाद ही शुरू हो गया था लेकिन आज पच्चीस बरस बाद तो सबकुछ बदल गया है। पच्चीस बरस बाद जब अदालत ने तबाही के गुनहगारों को फैसला सुनाया तो इसकी गूंज पूरी दुनिया में हुई। एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में फंसी मीडिया एकाएक आक्रामक हो गयी। पच्चीस बरस पहले भोपाल में जब यह तबाही मची थी तब अखबारों ने बेहद संजीदा होकर मामले को दुनिया के सामने रखा था। इस बार भी वह संजीदा थी लेकिन उसे साथ ही ज्यादा लोकप्रिय हो जाने की जल्दबाजी थी। जल्दबाजी यह भी थी कि उसका प्रतिस्पर्धी अखबार कहीं आगे न निकल जाए। पच्चीस बरस पहले यह प्रतिस्पर्धा नहीं थी। अखबारों की इस प्रतिस्पर्धा से कुछ बातें अच्छी हुई तो कुछ अखरने वाली भी रही। सामाजिक सरोकार के मामले में अखबारों की भूमिका को निरपेक्ष भाव से देखना होगा।
पच्चीस बरस पहले अखबार भोपाल के अवाम के साथ थे और पच्चीस बरस बाद भी अखबार अवाम के साथ खड़े दिखे। उनके हक में बात करते रहे। अखबार भोपाल की अवाम के साथ तो थे किन्तु उनकी प्राथमिकता बदली हुई थी। इस पर बात आगे फिलहाल कुछ और बातें इसी से जुड़ी हुई। अखबारों ने परिशिष्ट पर परिशिष्ट ठोंक दिये। फैसले के बाद लगातार कई दिनों तक दो और अधिक पन्ने गैस त्रासदी के नाम कर दिये। कोई किसी से पीछे न रह जाए इसलिये अलग से पन्ने दिये गये तो दैनंदिनी पन्नों में भी कटौती कर गैस से जुड़ी खबरों, रिपोर्ट्स और आलेखों को प्राथमिकता दी गई। उस रात की भयानक मंजर को याद किया गया। अखबारों की इस कोशिश का लाभ यह हुआ कि कई कई अनाम सी जानकारी आम आदमी तक आयी। पच्चीस बरस में जवान हो चुकी नयी पीढ़ी जो इस दर्द से अनजान थी, उसे जानने और समझने का मौका मिला। वह दर्द को महसूस तो नहीे कर पायी होगी लेकिन दर्द को जानने का अवसर जरूर मिला। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच दर्द का रिश्ता बन चला।
अखबारों ने पूरी शिद्दत के साथ गैस त्रासदी से जुड़े मुद्दे को उठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । तब के भोपाल में एसपी रहे रिटायर्ड स्वराज पुरी को अपने वर्तमान पद से इस्तीफा देना पड़ा। यहां कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति अथवा नैतिकता ने काम नहीं किया बल्कि अखबारों की प्रभावशाली भूमिका उनसे यह काम करा गयी। अखबारों ने खबरों और बातचीत के जरिये उन अफसरों के मन को तलाशा जो उस समय के जिम्मेदार माने गये हालांकि सबने कहा हम जिम्मेदार नहीं। ऐसे में अखबारों ने उनसे सुन ही लिया जिनमें तत्कालीन डीएम कहते हैं छोड़िये इन बातों को, बनारस की बात कीजिये। आम आदमी के सामने उनकी सोच अखबार के कारण ही आम आदमी तक पहुंच गयी। ऐसे अनेक जुड़े लोगों को बेनकाब करने में अखबार शक्तिशाली साबित हुए। दरअसल यही, अखबार का काम है और अखबारों ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। पच्चीस बरस पहले के अखबारों की भूमिका और आज के अखबारों की भूमिका का थोड़ा फर्क भी जांच लें। जहां तक मेरी जानकारी है तीन दिसम्बर को अखबार छपा ही नहीं था। अगले दिन जब अखबार छपे तो ऐसा लग रहा था कि अखबार के कागज आंसुओं में डूब गये हैं। आहिस्ता आहिस्ता गैस की खबरें, पीड़ितांे का दर्द अखबारों के कोने में जाता रहा। दो तीन बरस बीतते बीतते गैस त्रासदी पर ही खबरें बनती रहीं और पिछले एक दशक से ज्यादा समय से तो यह बरसी भी औपचारिक हो गयी थी। पच्चीस बरस बाद अखबार एकदम जागे। अदालत के फैसले ने न केवल भोपाल को बल्कि पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। विश्व स्तर पर इसकी प्रतिक्रिया हुई थी। फैसले को हर स्तर पर कोसा गया था। अखबारों ने फैसले की समीक्षा की और यह तलाश करने का प्रयास किया कि दोषी कौन है और सजा किसे मिलनी चाहिए। अपरोक्ष रूप से अखबार भी किसी न किसी के पक्षकार बन गये। यह सुनियोजित नहीं था लेकिन हुआ तो यही। तत्कालीन कांग्रेस सरकार, मुख्यमंत्री, अफसरान को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। अखबारों की इस रिपोर्टिंेग, लेख और साक्षात्कार गैस पीड़ितांे के दर्द से परे होकर राजनीतिक हमले पर केन्द्रीत हो गया। एक बार फिर वही होने लगा जो पहले होता रहा है मूल मुद्दा हवा में गुम हो गया और राजनीति छा गयी। अच्छा तो यह भी लगा कि मुआवजे की घोषणा के साथ बाजार की तैयारियों को भी खबरों में जगह दी गई। जाहिर है मुआवजे का पुराना अनुभव बाजार को है और बाजार को उम्मीद है कि इस बार फिर बाजार में ही मुआवजे की राशि अलग अलग सूरत में लौट आएगी। अखबारों के पच्चीस साल बाद की रिपोर्टिंेग में राहत के नाम पर मुआवजा का मुद्दा उठा। अलग अलग अखबारों में अलग अलग आंकड़े छपे लेकिन लगभग सबने कहा यह मुआवजा हमारी वजह से लेकिन कोई यह बताने वाला नहीं कि आखिर उनका दावा क्या था। यह मीडिया की प्रवृत्ति का द्योतक थी। आगे निकल जाने की होड़ में। इस सिलसिले में मुझे याद आता है कि हमें सिखाया जाता था कि किसी दुघर्टना में किसी की मौत दर्दनाक होती है किन्तु एक अखबारनवीस संवेदनशील होने के साथ बेरहम भी होता है। रिपोर्टर तो संवेदनशील होता है लेकिन अखबार का व्यवसाय उसे बेरहम बनाता है। जब कोई बड़ी दुघर्टना होती है तो अखबार की डेडलाइन के साथ हम यह देखते हैं कि मरने वालों की संख्या क्या हुई। हमारे प्रतिद्वंदी अखबार के आंकड़े से कम से कम दो तो हमारे ज्यादा हांे। झूठे आंकड़ें दे नहीं सकते और सच जानने के लिये किसी के जाने का इंतजार करना होता है। कुछ ऐसा ही भूमिका हर घटना दुघर्टना में अखबार की, रिपोर्टर की होती है, वह हुई। राहत के लिये मुआवजे की मिली रकम को अखबारांे ने नाकाफी बताया लेकिन बावजूद इसके वह यह दावा करने से नहीं चूके कि यह फैसला उनके कारण ही आया। व्यवसायिकता के इस दौर में यह अनपेक्षित नहीं है। हालांकि जब किसी की भूमिका का आप आंकलन करते हैं तो आपको उसके सकरात्मक और नकरात्मक दोनों पक्षों को तटस्थता के साथ देखना होता है। गैस त्रासदी के बारे में अखबारों की भूमिका पर भी यह केमिस्ट्री काम करती है। अखबारों ने पच्चीस बरस बाद भी पूरी शिद्दत के साथ भोपाल के अवाम के साथ खड़े दिखे, अच्छा लगा किन्तु प्रभावितों के इलाज को लेकर हो रही लापरवाही, भ्रष्टाचार और अनदेखी को भी उसी ताकत के साथ उठाते तो राहत के नये रास्ते खुल जाते। मुआवजा प्रभावितों को थोड़े समय के लिये राहत दे जाएगा किन्तु उनकी तकलीफ को पैसा नहीं दवा ही दूर कर पाएगी। इसके लिये अभी भी अखबारों से अपेक्षा है िकवह केम्पेन चलाये ताकि दुआ ही नहीं, प्रभावितों को दवा भी मिल सके।

Wednesday, June 23, 2010

kuch alag

लीडरशीप की नयी परिभाषा गढ़ती ग्रामीण महिलाएं
मनोज कुमार

मध्यप्रदेश में पंचायतीराज के डेढ़ दशक बाद महिला लीडर अब पूरी तरह से चुनौतियों का सामना करने के लिये तैयार दिख रही है। अनेक किस्म की दिक्कतों के बीच वे अपने लिये राह बना रही हैं। सत्ता पाने के बाद उन्हें सरूर (सत्ता का नशा) नहीं हुआ बल्कि सत्ता से वे सत (सच) का रास्ता बना रही हैं। यह स्थिति राज्य के दूरदराज झाबुआ से लेकर मंडला तक के ग्राम पंचायतों में है तो राजधानी भोपाल के आसपास स्थित गांवों की महिला लीडरों का काम अद्भुत है। ये महिलाएं कभी चुनौतियों को देखकर घबरा जाती थीं तो अब चुनौतियों का सामना करने के लिये ये तैयार दिख रही हैं। पंचायतीराज का पूरा का पूरा परिदृश्य बदला बदला दिखायी देने लगा है। कभी गांवों में महिलाओं के नाम पर पुरूषों की सत्ता हुआ करती थी और परिवार वालों का दखल था, अब वहां सिर्फ और सिर्फ महिलाआंे का राज है। वे चुनी जाती हैं, राज करती हैं और समस्याआंे से जूझती हुई गांव के विकास का रास्ता तय करती हैं। किरण बाई आदिवासी महिला है। वह तेंदूखेड़ा में रहती है। इस बार के चुनाव में वह बाबई चिचली जनपद की अध्यक्ष चुनी गयीं। तेंदूखेड़ा और बाबई चिचली के बीच की दूरी लगभग तेरह किलोमीटर है। जनपद अध्यक्ष होने के नाते उन्हें नियमानुसार वाहन की सुविधा मिलनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। जनपद अध्यक्ष होने के नाते किरण बाई ने जनपद पंचायत के सीईओ से इसी साल 2010 के अप्रेल महीने में वाहन देने का अनुरोध किया तो उन्हें किराये पर वाहन लेने की अनुमति दी गई। किरण बाई को लगा कि उनकी मुसीबत खत्म हो गई और वे अपने काम को इत्मीनान के साथ पूरा कर सकेंगी लेकिन उन्हें इस बात का इल्म नहीं था कि अभी उनकी मुसीबत खत्म नहींं हुई है। सीईओ के आदेश पर वाहन किराये पर लिया और अपना काम निपटाने निकल पड़ी। महीना खत्म होते होते जब किरणबाई ने भुगतान के लिये बिल प्रस्तुत किया तो उसे किनारे कर दिया गया और कहा गया कि अभी राशि नहीं है। जनपद अध्यक्ष के लिये अब दोहरी मुसीबत है। पहले तो गाड़ी नहीं थी, अब उधारी उनके मत्थे चढ़ गयी है। सीईओ कहते हैं कि उनके पास ही गाड़ी नहीं है तो जनपद अध्यक्ष को कहां से गाड़ी की सुविधा दें लेकिन पंचायत कानून में साफतौर पर प्रावधान है कि जनपद अध्यक्ष को वाहन सुविधा उपलब्ध करायी जाए। बाबई चिचली जनपद की अध्यक्ष किरण बाई के हौसले को सीईओ की इस बेरूखी से कोई फर्क नहीं पड़ा। वह अपने पति के साथ रोज तेरह किलोमीटर का सफर सायकल से तय कर जनपद मुख्यालय जाती हैं। दिन भर काम निपटाने के बाद वह वापस अपने पति के साथ घर लौट आती हैं। अपने जीवनसाथी के इस सहयोग से जहां किरण बाई के हौसलों को नयी ऊंचाई मिली है। किरणबाई एक मिसाल है उन महिलाओं के लिये जो सुविधाओं के अभाव में अपना काम नहीं कर पाती हैं या दिक्कतों का रोना रोते हुए समय गंवा देती हैं। किरणबाई सुविधा नहीं मिलने से दुखी हैं लेकिन निराश नहीं। वे अपना दायित्व समझती हैं और उसे पूरा करने के लिये आगे आ रही हैं। किरणबाई राज्य की पंचायतों की अकेली लीडर नहीं है बल्कि ऐसे अनेक गुमनाम महिला लीडर हैं जो इसी साहस और ताकत के साथ सत्ता की बागडोर सम्हाले हुए हैं। इन महिला लीडरों को समाज सलाम करता है। मध्यप्रदेश में स्त्री ग्रामीण सत्ता के प्रति पुरूषों में भी भाव बदला है। अब उन्हांेंने किनारा कर लिया है और इसका प्रमाण यह है कि राज्य के अनेक पंचायतों में सौफीसदी सत्ता महिलाओं की बन गयी है। पचास फीसदी आरक्षण के कारण और पचास फीसदी स्वयं पुरूषों द्वारा सत्ता छोड़ने के कारण। हालांकि अभी इसका प्रतिशत कम है लेकिन उम्मीद की एक किरण जागी है। महिला लीडरों के लिये चुनौतियां कम नहीं हुई है। अनेक ऐसे उदाहरण मिले हैं जहां पंचायतोंे में महिला लीडरों को उनके बुनियादी अधिकार एवं सुविधाओं से वंचित रखा गया है। नियमों का हवाला, आर्थिक तंगी और अपरोक्ष रूप महिला लीडर को परेशान करने की मंशा के चलते रोज नयी चुनौतियां दी जा रही हैं। इन चुनौतियों से महिला लीडर परेशान होने के बजाय रोज नयी इबारत लिख रही हैं।
(लेखक भोपाल से प्रकाशित मीडिया पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम के संपादक, स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। )
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Tuesday, June 22, 2010

mera shahar


इस शहर को एक और इल्जाम न दो

मनोज कुमार


दिल्ली और भोपाल के अखबारों में खबर छपी है कि एंडरसन को भगाया नहीं जाता तो लोग उन्हें मार डालते। यह बयान भोपाल को एक और जख्म दे गया। इस इल्जाम को यह शहर नहीं सह पायेगा। भोपाल को जो लोग जानते हैं वे यह जानते हैं कि भोपाल के लोग जान देना जानते हैं, जान लेना नहीं। यदि ऐसा नहीं होता तो इन पच्चीस सालों से वे रोज मर मर कर नहीं जी रहे होते। यदि ऐसा नहीं होता तो पच्चीस साल बाद भी मुंह चिढ़ाती यूका का शानदार गेस्टहाउस यूंह ी आबाद नहीं रहता। जिन लोगों ने यह बयान दिया है, उन्होंने भोपाल की छाती को छलनी कर दिया है। पच्चीस बरस पहले देह में घुला जहर उन्हें धीमा धीमा मार रहा है लेकिन राजनीति और मीडिया जो रोज जहर उगल रहे हैं, उसे उसके दिल पर रोज जख्म हो रहे हैं। इस ताजे जख्म को कौन भरेगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। यह सच है कि सच को सामने आना चाहिए और यह भी सच है कि सच को सामने लाने के लिये ऐसे जख्म भोपाल को झेलना भी पड़ेगा लेकिन इस सच का क्या करें जो इल्जाम के रूप् में भोपाल की तहजीब और संस्कृति को तार तार कर जाता है।
भोपाल एक शहर नहीं है बल्कि इस देश की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतिनिधि शहर है। अपने बसने से लेकर आज तक के सफर में भोपाल ने कई पड़ाव पार किये हैं। अनेक किस्म की त्रासदी झेली है लेकिन यह शहर कभी उन्मादी नहीं हुआ, कभी संयम नहीं खोया। आपातकाल के दिन हों, इंदिराजी की हत्या से उपजी भावनात्मक हिंसा का मामला हो या बाबरी मजिस्द को लेकर हुए फसाद। बार बार और हर बार भोपाल को उन्मादी बनाने की कोशिशें हुई लेकिन सब नाकाम रहीं। गंगा-जमुनी संस्कृति के इस शहर मंे भाईचारा की मिसाल शायद ही कहीं और मिले। जहां तक बात भोपाल गैस कांड की है और इससे उपजे गुस्से के बाद एंडरसन को मार डालने की है तो यह जान लेना चाहिए कि उस समय भोपाल के बाशिंदों को खुद को बचाने का समय नहीं था तो वे क्या एंडरसन को मार डालते?
पच्चीस बरस पहले उस काली रात को जो लोग खुद तिल तिल कर मर रहे थे, जिनके घरों और आसपास में लाशों पर लाशें बिछ रही थी, क्या उनके पास इतना वक्त था कि वे एंडरसन को मारने के लिये एकजुट हो जाते। बेटे को ढूंढ़ती मां, पति को ढूंढती पत्नी, कहीं किनारे पर बैठे मां-बाप और अपनी जान बचाने के लिये भागते लोगों को तो शायद दस बीस दिन बाद पता चला होगा कि एंडरसन देश छोड़कर चला गया है। जो लोग अपने को और अपने लोगों को बचाने में कामयाब नहींे हो पा रहे थे वे भला क्या एंडरसन पर हमला करते? जो लोग भोपाल पर यह इल्जाम लगा रहे हैं वे भीड़ का मनोविज्ञान भी समझते होंगे। भीड़ दोषी को नहीं ढूंढ़ती है बल्कि वह हर उस शख्स को दोषी मान लेती है जो सामने खड़ा होता है और यदि भोपाल उन्मादी होता तो सबसे पहले शिकार स्थानीय नेता होते, सरकार होती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जनता अपनी खामोशी का रिजल्ट बैलेट के जरिये देती है लेकिन यहां भी ऐसा नहीं हुआ। फिर भला किस आधार पर भोपाल की अस्मिता पर इल्जाम ठोंक दिया गया कि एंडरसन को नहीं भगाया गया होता तो उसे मार डाला जाता। भोपाल के लिये यह इल्जाम ठीक नहीं है।
एंडरसन को किसने भगाया, दोषी कौन हैं और किसे सजा मिलेगी, इस पर कार्यवाही चल रही है, बातें हो रही हैं। समय करेगा अपना फैसला किन्तु मेरा सवाल यह है कि राजनीति और मीडिया गैस त्रासदी के फैसले के बाद जितना आक्रामक हो रही है, वह बीते सालों में ऐसा तेवर क्यों नहीं दिखाया गया? जो लोग दोषी हैं, उन्हांेने लगभग अपनी जिंदगी जी लिया है और संभव है कि इसमें एक दो इस दुनिया में भी नहीं होंगे। अब इनको सजा भी होगी तो कौन सा पीड़ितों का भला हो जाएगा? जांच तो इस बात की भी होनी चाहिए कि गैस पीड़ितों की इलाज के लिये बनाये गये अस्पताल में जो कुछ हुआ और हो रहा है, उसके लिये दोषी कौन हैं? भोपाल के पीड़ित वाशिंदे मर रहे थे लेकिन माकूल इलाज के अभाव में मरने के लिये मजबूर करने वाले दोषी कौन हैं? दरअसल मुझे लगता है कि सवाल असल अब यह है कि पीड़ितों को अधिकाधिक राहत कैसे पहुंचाया जाए? उनके जख्म को तो भरा नहीं जा सकता लेकिन मरहम लगाने की कोशिश तो की जा सकती है। पीड़ितों के जो लोग सच्चे पैरोकार हैं उन्हें भाई सत्थू, जब्बार और ऐसे ही दर्जनों लोग नाम और अनाम काम कर रहे हैं, वैसे काम करने के लिये आगे आयें। भोपाल जख्म का अभी सूखा नहीं है और शायद कभी सूखे भी नहीं। अपनों के खोने का दर्द, खाने वाला ही जान सकता है। शायद इसलिये ही कहा गया है जाके फटे न पीर बिबाई, वो का जाने दर्द परायी। अच्छा होगा कि पूरे मामले पर देशव्यापी बहस हो, दोषियों को सजा दिलाने के लिये छोटी छोटी बातों को भी प्रकाश में लाया जाए लेकिन याद रहे कि ऐसा कोई इल्जाम न दें जिससे भोपाल का दिल जार जार रोये। अब भोपाल में कोई और इल्जाम झेलने की ताकत नहीं बची है।

bhasha

हिन्दी से दूर होते हिन्दी के अखबार
पढ़कर आप चैंक गए होंगे। चैंकिये नहीं, यह हकीकत है। मैं भी तब चैंका था जब लगभग एक दर्जन समाचार पत्रों का लगभग छह महीने तक अध्ययन करता रहा। हिन्दी अखबारों की हिन्दी का मटियामेट इन छह महीनों में नहीं हुआ बल्कि इसकी शुरूआत तो लगभग डेढ़ दशक पहले ही शुरू हो गयी थी। जिस तरह एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिये हिन्दी पाठशाला में पढ़ने वाला बच्चा हर तरह से कमजोर होता है और पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा चाहे कितना ही कमजोर क्यों न हो, वह कुशाग्र बुद्धि का ही कहलायेगा, ऐसी मान्यता है, सच्चाई नहीं। लगभग यही स्थिति हिन्दी के अखबारों का है। यह सच है कि हिन्दी के अखबारों का अपना प्रभाव है। उनकी अपनी ताकत है और यही नहीं हिन्दी के अखबार ही समाज के मार्गदर्शक भी रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम की बात करें अथवा नये भारत के गढ़ने की, हिन्दी के अखबारोें की भूमिका ही महत्वपूर्ण रही है। भारत गांवों का देश कहलाता है और हिन्दी के अखबार इनकी आवाज बने हुए हैं। बदलते समय में भी हिन्दी के अखबार प्रभावशाली बने हुए है। बाजार की सबसे बड़ी ताकत भी हिन्दी के अखबार हैं और बाजार की सबसे बड़ी कमजोरी भी हिन्दी के अखबार हैं। इन सबके बावजूद हिन्दी के अखबार कहीं न कहीं अपने आपको कमजोर महसूस करते हैं और अंग्रेजी से नकलीपन करने से बाज नहीं आते हैं। ये नकलीपन कैसा है और इसके पीछे क्या तर्क दिये जा रहे हैं, इस मानसिकता को समझना होगा। इस बात को समझने के लिये हमें अस्सी के दौर में जाना होगा। यह वह दौर था जब हिन्दी का अर्थ हिन्दी ही हुआ करता था। खबरों में अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग की मनाही थी। पढ़ने वाले भी सुधि पाठक हुआ करते थे। समय बदला और चीजें बदलने लगीं। सबसे पहले कचहरी अथवा अदालत के स्थान पर कोर्ट का उपयोग किया जाने लगा। इसके बाद जिलाध्यक्ष एवं जिलाधीश के स्थान पर कलेक्टर और आयुक्त के स्थान पर कमिश्नर लिखा जाने लगा। हिन्दी के पाठक इस बात को पचा नहीं पाये और विरोध होने लगा तब बताया गया कि समय बदलने के साथ साथ अब हिन्दी अंग्रेजी का मिलाप होने लगा है और वही शब्द अंग्रेजी के उपयोग में आएंगे जो बोलचाल के होंगे। तर्क यह था एक रिक्शावाला कोर्ट तो समझ जाता है किन्तु कचहरी अथवा अदालत उसके समझ से परे है। जिलाध्यक्ष शब्द को लेकर यह तर्क दिया गया कि विभिन्न राजनीतिक दलों के जिलों के अध्यक्षों को जिलाध्यक्ष कहा जाता है और जिलाधीश अथवा जिलाध्यक्ष मे भ्रम होता है इसलिये कलेक्टर लिखा जाएगा ताकि यह बात साफ रहे कि कलेक्टर अर्थात जिलाध्यक्ष है जो एक शासकीय अधिकारी है न कि किसी पार्टी का जिलाध्यक्ष। आयुक्त को कमिश्नर लिखे जाने पर कोई पक्का तर्क नहीं मिल पाया तो कहा गया कि रेलपांत का हिन्दी लौहपथ गामिनी है और सिगरेट को श्वेत धूम्रपान दंडिका कहा जाता है जो कि आम बोलचाल में लिखना संभव नहीं है। इसी के साथ शुरू हुआ हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल। इसके बाद हिन्दी अखबारों को लगने लगा कि हिन्दी पत्रकारिता में खोजी पुट नहीं है और अनुवाद की परम्परा चल पड़ी। बड़े अंंग्रेजी अखबारों से हिन्दी में खबरें अनुवाद कर प्रकाशित की जाने लगी। इसके पीछे बड़ी, गंभीर, खोजी और न जाने ऐसे कितने तर्क देकर एक बार फिर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं का गुणगान किया जाने लगा। 90 के आते आते तो लगभग हर अखबार यह करने लगा था। खासतौर पर क्षेत्रीय हिन्दी अखबार। मुझे लगता है कि इसके पीछे यह भावना भी काम कर रही थी कि देखिये हमारे पास श्रेष्ठ अनुवादक हैं जो अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद कर आप तक पहुंचा रहे हैं। हालांकि यह दौर अनुवाद का दौर था किन्तु इसकी विशेषता यह थी कि इसमें अंग्रेजी का शब्दानुवाद नहीं किया जाता था बल्कि भावानुवाद किया जाता था। इससे अंग्रेजी में लिखी गयी खबर की आत्मा भी नहीं मरती थी और हिन्दीभाषी पाठकों को खबर का स्वाद भी मिल जाता था। ऐसा भी नहीं है कि इसका फायदा हिन्दी के पाठकांें को नहीं हुआ। फायदा हुआ किन्तु श्रेष्ठिवर्ग साबित हुआ अंग्रेजी जानने वाले और अंग्रेजी के अखबार विद्वान। अनचाहे में हिन्दी अखबार स्वयं को दूसरे दर्जे का मानने लगे और हिन्दी में काम करने वाले पत्रकार स्वयं में हीनभावना के शिकार होने लगे। प्रबंधन भी उन पत्रकारों को विशेष तवज्जो देने लगा जो अंग्रेजी के प्रति मोह रखते थे और एक तरह से स्वयं को अंग्रेजीपरस्त बताने में माहिर थे। हिन्दी और अंग्रेजी की यह कशमकश चल ही रही थी कि हिन्दी को लेकर आंदोलन होने लगा। अंग्रेजी हटाओ के समर्थकोंं की इस मायने में मैं पराजय देखता हूं कि वे अंग्रेजी तो हटा नहीं पाये किन्तु हिन्दी को भी नहीं बचा पाये। पत्रकारिता का यह बदलाव का युग था। सन् 77 के आपातकाल के बाद एकाएक नवीन समाचार पत्रों के प्रकाशन संख्या में वृद्वि होने लगी जिसमें हिन्दी की संख्या अधिक थी। यह स्वाभाविक भी था क्यांेकि देश भर में हिन्दीभाषियों की संख्या अधिक थी, खासकर अविभाजित मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में। मध्यप्रदेश में तब अंग्रेजी जानने वाले राजधानी भोपाल के भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स में काम करने आये अहिन्दी भाषी लोग या वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के भिलाई इस्पात संयंत्र अथवा एसीसीएल, बाल्को आदि में काम करने वाले अहिन्दी भाषी लोगों को ही अंग्रेजी अखबार की दरकार थी। इनके लिये राजधानी दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी के अखबार जो उस समय दूसरे दिन पहुंचते थे, पर्याप्त था। हिन्दी अखबारों के प्रकाशनों की बढ़ती संख्या और अनुवाद की कमी से जूझते अखबारों के संकट को समाचार एजेंसियों ने परख लिया। संभवतः सबसे पहले यूनाइटेड न्यूज एजेंसी ने वार्ता के नाम से हिन्दी समाचार देना शुरू किया। इसके बाद प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया ने भाषा नाम से हिन्दी में समाचार देना आरंभ किया। वार्ता और भाषा के आगमन के साथ हिन्दी अखबारों में अनुवादकों को नजरअंदाज किया जाने लगा। कई अखबारों ने तत्काल अनुवादकों के पद को समाप्त कर दिया। हिन्दी के अखबारों में हिन्दी की उपेक्षा का परिणाम यह रहा कि एक समय पू्रफरीडिंग के लिये हिन्दी में एमए पास लोगों को रखा जाता था। हिन्दी अखबारों को यह पद भी भारी पड़ने लगा और उपसम्पादकों और रिपोर्टरों को कह दिया गया कि अपनी खबरों का पू्रफ वे ही पढ़ेंगे। थोड़ा बहुत विरोध होने के बाद पू्रफरीडर का पद समाप्त कर दिया गया। मेरा खयाल है कि आज के समय में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के अलावा थोड़े से अखबारों में ही यह पद सुरक्षित है। अगर मेरी स्मरणशक्ति काम कर रही है तो पू्रफरीडर को बछावत वेतन आयोग ने श्रमजीवी पत्रकार के समकक्ष माना था। खैर, इसके बाद आज समाचार पत्रों में जो गलतियां छप रही हैं, वे हमें शर्मसार करती हैं, गर्व का भाव कहीं नहंीं है। लिखते समय वाक्य के गठन में गलती हो जाना या कई बार एक जैसे नाम में भूल की आशंका बनी रहती थी जिसे पू्रफरीडर सुधार लिया करते थे किन्तु अब हमारी गलती कौन बताये। इतना जरूर है कि अगले दिन आपकी गलती के लिये संपादक दंड देने के लिये जरूर हाजिर रहेगा। 90 में टेलीविजन संस्कृति ने तो हिन्दी समाचार पत्रों को प्रिंटमीडिया का टेलीविजन बना दिया। अब खबरों की प्रस्तुति उसी रूप में होने लगी और भाषा भी लगभग टेलीविजन की हो गई। खबर और विचार की भाषा के बीच के अंतर को भी नहीं रखा गया। वाक्य विन्यास का बिगड़ा रूप् अपने आपमें हिन्दी पाठको को डरा देने वाला है। एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि जिन अखबारों से बच्चे हिज्जा कर हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखते थे, आज वह अखबार गुम हो गया है। सिटी, मेट्रो, नेशनल, इंटरनेशल जैसे शब्द धड़ल्ले से हिन्दी अखबारों में उपयोग हो रहे हैं। अखबार के एकाधिक पृष्ठों के नाम अंग्रेजी में होते हैं। कहा जाने लगा कि यह हिंग्लिश का दौर है। हिंग्लिस से एक कदम और आगे जाकर एक अखबार आईनेक्स्ट के नाम पर आरंभ हुआ। इसे न तो आप हिन्दी कह सकते हैं और न इसे अंग्रेजी, हिंग्लिश का भी कोई चेहरा नजर नहीं आया। इस बहुमुखी प्रतिभा वाले समाचार पत्र से मेरा परिचय महात्मा गांधी अन्र्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने कराया। पत्रकारिता के छात्रों के बीच जब मैं व्याख्यान देने पहुंचा और पत्रकारिता की भाषा पर चर्चा हुई तो विद्यार्थियों ने इस अनोखे अखबार के बारे में न केवल बताया बल्कि एक प्रति भेंट भी की। वे पत्रकारिता की इस भाषा से दुखी थे। एक तरफ हिन्दी के अखबार स्वयं को हिन्दी से दूर कर रहे थे और दूसरी तरफ अंग्रेजी के अखबार और पत्रिकायें हिन्दी पाठकों के बीच एक बड़ा बाजार देख रही थी। इन प्रकाशनों ने न केवल हिन्दीभाषी पाठकों में बाजार ढूंढ़ा बल्कि भाषाई पाठकों में वे बाजार की तलाश करने निकल पड़े। अंग्रेजी का इंडिया टुडे हिन्दी में प्रयोग करने वाला पहला अखबार था। आरंभिक दिनों में हिन्दी इंडिया टुडे की सामग्री अंग्रेजी से अनुवादित होती थी किन्तु आहिस्ता आहिस्ता हिन्दी का स्वतंत्र स्वरूप् ग्रहण कर लिया। मेरे लिये ही नहीं हिन्दी पत्रकारों के लिये यह गौरव की बात है कि हमारे अग्रज और रायपुर जैसे कभी एक छोटे से शहर (आज भले ही रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी हो) से निकले श्री जगदीश उपासने हिन्दी इंडिया टुडे के संपादकीय कक्ष के सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे हैं। अंग्रेजी के प्रकाशनों का हिन्दी में आरंभ होना और हिन्दी के एक पत्रकार का शीर्ष पर बैठना इस बात का संकेत है कि हिन्दी ताकतवर थी और रहेगी।हिन्दी पत्रकारिता के लिये यह सौभाग्य था कि उसे राजेन्द्र माथुर जैसे पत्रकार एवं ओजस्वी सम्पादक मिला। राजेन्द्र माथुर मूलतः अंग्रेजी के जानकार थे और वे चाहते तो उस दौर में भी बड़ी मोटी तनख्वाह पर किसी अंग्रेजी अखबार के शीर्षस्थ पर पर काबिज हो सकते थे किन्तु उन्होंने इसके उलट किया। वे हिन्दी पत्रकारिता में आये और हिन्दी में सम्पादक के होने को नया अर्थ दिया। हिन्दी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर का नाम गर्व से लिया जाता रहेगा। हिन्दी पत्रकारिता को हताशा और कुंठा के दौर से बाहर आने की जरूरत है और अपने भीतर की ताकत को पहचानने की भी। हिन्दी पत्रकारिता में अनेक नामचीन पत्रकार और सम्पादक हुए जिनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण और मध्यमवर्गीय परिवार की रही है किन्तु मेरी जानकारी में अंग्रेजी के अपवाद स्वरूप् कुछ नाम छोड़ दें तो बाकि बचे पत्रकार और सम्पादक सम्पन्न, शहरी परिवेश में पले-बढ़े और पब्लिक स्कूलांे में शिक्षित परिवारों से आये। हिन्दी पत्रकारिता और समाचार पत्रों को इस बात की मीमांसा करना चाहिए कि जब एक अंग्रेजी का अखबार हिन्दी मंे छपने के लिये मजबूर हो सकता है तो हम हिन्दी में ही अपना एकछत्र राज्य क्यों नहीं बना पाये? क्यों हम अंग्रेजी पत्रकारिता का अनुगामी बने हुए हैं? क्यों हमें अंग्रेजी पत्रकारिता श्रेष्ठ लगती है? इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी का एक बड़ा पाठक वर्ग आज भी अंग्रेजीमिश्रित हिन्दी के खिलाफ हैं। कार्पोरेटस्वरूप लेकर तेजी से फैलते भास्कर पत्र समूह एवं कुछ हिन्दी के कुछ अन्य समाचार पत्र सम्मानजनक मानदेय देने लगे हैं। पेजथ्री पढ़ाने वाले हिन्दी के अखबारों में स्थानीय लेखकों को स्थान नहीं मिल पाता है और न ही उन्हें सम्मानपूर्वक मानदेय दिया जाता है। पाठक वर्ग भी इन दिनों अखबारों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। वह भी अखबारों के उपहार योजनाओं में उलझ कर रह गया है। एक समय था जब गलत खबर छपने पर पाठकों की दनादन चिठिठयां समाचार पत्रों के कार्यालयों में आ जाती थी। संपादक को गलती के लिये माफी मांगने के लिये मजबूर होना पड़ता था किन्तु इन गलतियों पर पाठक ध्यान खींचने के बजाय, उसे सुधारने के बजाय मजा लेते हैं। पाठकों की यह निराशा इस बात को साबित करती है कि उसने अखबारों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है।80 के दशक में जब मैंने देशबन्धु से अपनी पत्रकारिता का श्रीगणेश किया तो हमें प्रशिक्षण के दौरान यह बात बतायी गयी थी कि हमारे अखबार का पाठक वर्ग कौन सा है और उनमें साक्षरता का प्रतिशत क्या है। यह इसलिये कि हम खबरों की, विचारों की, संयोजन करने की कला उनकी समझ के अनुरूप् कर सकें। गंभीर गहन साहित्यिक शब्दों का जाल उन्हें अखबार से दूर कर देगा। इसका यह अर्थ भी कदापि नहीं था कि आप स्तरहीन शब्दों का उपयोग करें बल्कि समझाइश यह थी कि गृह के बजाय घर लिखें और कृषक के बजाय किसान। जनसत्ता को पढ़ते हुए मैं इस बात से गर्व से भर जाता हूं कि आज भी यह अखबार हिन्दी पाठक का अखबार है। उसकी भाषा, उसकी प्रस्तुति एक आम हिन्दुस्तानी पाठक की है जो गंगा जमुनी संस्कृति में पला बढ़ा है। जिसे हिन्दी के साथ उर्दू का भी ज्ञान है और देशज बोली की सुगंध इस अखबार में छपे हर शब्द से आपको हमको मिल जाएगी। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं उस दिन की जब हिन्दी के अखबार पेजथ्री से उबरकर वापस चैपाल का अखबार बन सकेंगे। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन, भोपाल में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मेे पुस्तकाकार में प्रकाशन। फिलवक्त भोपाल से मीडिया पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम के प्रकाशक एवं संपादक )

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