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Friday, July 2, 2010

coldrink

कोलड्रिंक्स में अब उफान क्यों नहीं
मनोज कुमार
आज आइसक्रीम पार्लर पर जाकर मैंने कोक की मांग की और सधे हाथों से लगभग छह माह या इससे ज्यादा पहले जो बारह रुपये भुगतान करता था, वह करने लगा तो दुकानदार लगभग मुझे चिढ़ाते हुए कहा कि पन्द्रह रूप्ये लगेंगे। इस बारे में मेरा हर सवाल बेकार था क्योंकि दुकानदार को इससे कोई वास्ता नहीं। इसे संयोग ही कहेंगे कि जब मैं कोक और सुनीता नारायणनन के बारे में सोच रहा था तभी मेरी नजर एक आर्टिकलनुमा खबर पर पढ़ी जिसमें साफ्टडिंªक्स से होेने वाले मानव एवं धरती के नुकसान के बारे में तफसील से बयान किया गया था। यह महज संयोग ही था कि मैं और वह एक किताब एक ही प्लेटफार्म पर खड़े थे। सुनीता नारायणन ने कभी कोलड्रिंक्स में अब उफान पैदा कर दिया था। ठंडे पेय पदार्थ में इतनी गर्मी आ गयी थी कि लोग इसे पीने से परहेज करने लगे थे लेकिन जैसा होता आया है वैसा ही एक बार दोहराया गया और समय गुजरने के साथ साथ यह उफान ठंडा पड़ता गया। लोग भूलने लगे कि इसके पीने से क्या बीमारी होगी और हमारी धरती माता का कोख कैसे आहिस्ता आहिस्ता खोखला होता जा रहा है। एक बार चर्चा इसलिये शुरू हो रही है कि अभी इस विषय पर एक किताब आयी है। बहुत थोड़े से अखबार और पत्रिकाओं ने गौर किया है और इसमें प्रकाशित सामग्री को आम पाठक तक पहुंचाने का प्रयास किया है। तय बात है िकइस सामग्री का बहुत प्रभाव तब तक नहीं पड़ेगा जब तक कि मीडिया आक्रामक न हो जाए। सुनीता नारायणन ने जब मोर्चा खोला था तब मीडिया का तेवर भी आक्रामक था।
समय गुजरने के साथ साथ कोक और पेप्सी का मुद्दा परिदृश्य में चला गया। एक समय था जब मीडिया ने आक्रामक तेवर दिखाये तो इन पेय पदार्थों की कीमतों में अचानक गिरावट आ गयी। कहना न होगा कि कंपनी को उसके लाभ के प्रतिशत में भारी गिरावट दिखी लेकिन नुकसान हुआ होगा, यह कहना मुश्किल है। समय के साथ मामला ठंडा पड़ता गया और इन पेय पदार्थों का बाजार वापस गर्माता गया। चुपके से कब दामों में वृद्वि कर दी गई, किसी को खबर नहीं हुई। इन कंपनियों का फार्मूला बहुत अचूक होता है जब एक रूप्ये कीमत कम करते हैं तो लाखो रूप्ये के विज्ञापन देकर एक एक उपभोक्ता को पकड़ पकड़ कर बताने का प्रयास करते हैं किन्तु जब तीन रूप्ये कीमत बढ़ाते हैं तो किसी को खबर नहीं होने देते। आज इन पेय पदार्थों का मार्केट उछाल पर है और इसे पीने वाले हिन्दुस्तानी की तबीयत उतार पर। पर्यावरण को होने वाले नुकसान की तो पूछिये मत।
सवाल यह है कि एक सुनीता नारायणनन ने सामाजिक सरोकार के मुद्दे को आगे बढ़ाया। सब लोगों ने उनके फेवर में बात की। कहा बिलकुल ठीक है। तो फिर ऐसा क्या हो गया कि इसके बाद आगे कोई क्यों नहीं आया? एकदम से खामोशी क्यों छा गयी? क्यों अब इन पेय पदार्थों से होने वाले नुकसान के बारे में मीडिया फोरम में बातचीत नहीं हो रही है? स्कूलों में बच्चों को जो ताकीद दी जा रही थी, अचानक उस विषय को क्यों गायब कर दिया गया? हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये हम आजादी के साठ साल से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी लड़ रहे हैं तो पेप्सी और कोक की विदाई करने के लिये हम क्यों पीछे हट रहे हैं? इनके खिलाफ हमारी लड़ाई तेज क्यों नहीं हो रही है। शायद मामला राजस्व का है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की लड़ाई मंे सरकार के खजाने को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है लेकिन इनके खिलाफ कार्यवाही से कुछ तो नुकसान होगा। शराब और तंबाकू पर इसलिये ही अब तक प्रतिबंध नहीं लग पाया है क्योंकि सबसे ज्यादा राजस्व इनसे ही मिलता है। मीडिया को एक बार फिर इस मुद्दे पर आक्रामक होना होगा क्योंकि यह मामला सेहत का है।