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Thursday, June 24, 2010

Media ka Roal


गैस त्रासदी और मीडिया
मनोज कुमार

पच्चीस बरस पहले दो-तीन दिसम्बर की दरम्यानी रात जब मिथाइल आयोसायनाइट ने भोपाल में तबाही मचायी थी तब और आज के भोपाल का चेहरा बदल गया है। बदलाव तो तबाही के थोड़े सालोें बाद ही शुरू हो गया था लेकिन आज पच्चीस बरस बाद तो सबकुछ बदल गया है। पच्चीस बरस बाद जब अदालत ने तबाही के गुनहगारों को फैसला सुनाया तो इसकी गूंज पूरी दुनिया में हुई। एक-दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में फंसी मीडिया एकाएक आक्रामक हो गयी। पच्चीस बरस पहले भोपाल में जब यह तबाही मची थी तब अखबारों ने बेहद संजीदा होकर मामले को दुनिया के सामने रखा था। इस बार भी वह संजीदा थी लेकिन उसे साथ ही ज्यादा लोकप्रिय हो जाने की जल्दबाजी थी। जल्दबाजी यह भी थी कि उसका प्रतिस्पर्धी अखबार कहीं आगे न निकल जाए। पच्चीस बरस पहले यह प्रतिस्पर्धा नहीं थी। अखबारों की इस प्रतिस्पर्धा से कुछ बातें अच्छी हुई तो कुछ अखरने वाली भी रही। सामाजिक सरोकार के मामले में अखबारों की भूमिका को निरपेक्ष भाव से देखना होगा।
पच्चीस बरस पहले अखबार भोपाल के अवाम के साथ थे और पच्चीस बरस बाद भी अखबार अवाम के साथ खड़े दिखे। उनके हक में बात करते रहे। अखबार भोपाल की अवाम के साथ तो थे किन्तु उनकी प्राथमिकता बदली हुई थी। इस पर बात आगे फिलहाल कुछ और बातें इसी से जुड़ी हुई। अखबारों ने परिशिष्ट पर परिशिष्ट ठोंक दिये। फैसले के बाद लगातार कई दिनों तक दो और अधिक पन्ने गैस त्रासदी के नाम कर दिये। कोई किसी से पीछे न रह जाए इसलिये अलग से पन्ने दिये गये तो दैनंदिनी पन्नों में भी कटौती कर गैस से जुड़ी खबरों, रिपोर्ट्स और आलेखों को प्राथमिकता दी गई। उस रात की भयानक मंजर को याद किया गया। अखबारों की इस कोशिश का लाभ यह हुआ कि कई कई अनाम सी जानकारी आम आदमी तक आयी। पच्चीस बरस में जवान हो चुकी नयी पीढ़ी जो इस दर्द से अनजान थी, उसे जानने और समझने का मौका मिला। वह दर्द को महसूस तो नहीे कर पायी होगी लेकिन दर्द को जानने का अवसर जरूर मिला। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच दर्द का रिश्ता बन चला।
अखबारों ने पूरी शिद्दत के साथ गैस त्रासदी से जुड़े मुद्दे को उठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । तब के भोपाल में एसपी रहे रिटायर्ड स्वराज पुरी को अपने वर्तमान पद से इस्तीफा देना पड़ा। यहां कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति अथवा नैतिकता ने काम नहीं किया बल्कि अखबारों की प्रभावशाली भूमिका उनसे यह काम करा गयी। अखबारों ने खबरों और बातचीत के जरिये उन अफसरों के मन को तलाशा जो उस समय के जिम्मेदार माने गये हालांकि सबने कहा हम जिम्मेदार नहीं। ऐसे में अखबारों ने उनसे सुन ही लिया जिनमें तत्कालीन डीएम कहते हैं छोड़िये इन बातों को, बनारस की बात कीजिये। आम आदमी के सामने उनकी सोच अखबार के कारण ही आम आदमी तक पहुंच गयी। ऐसे अनेक जुड़े लोगों को बेनकाब करने में अखबार शक्तिशाली साबित हुए। दरअसल यही, अखबार का काम है और अखबारों ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। पच्चीस बरस पहले के अखबारों की भूमिका और आज के अखबारों की भूमिका का थोड़ा फर्क भी जांच लें। जहां तक मेरी जानकारी है तीन दिसम्बर को अखबार छपा ही नहीं था। अगले दिन जब अखबार छपे तो ऐसा लग रहा था कि अखबार के कागज आंसुओं में डूब गये हैं। आहिस्ता आहिस्ता गैस की खबरें, पीड़ितांे का दर्द अखबारों के कोने में जाता रहा। दो तीन बरस बीतते बीतते गैस त्रासदी पर ही खबरें बनती रहीं और पिछले एक दशक से ज्यादा समय से तो यह बरसी भी औपचारिक हो गयी थी। पच्चीस बरस बाद अखबार एकदम जागे। अदालत के फैसले ने न केवल भोपाल को बल्कि पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। विश्व स्तर पर इसकी प्रतिक्रिया हुई थी। फैसले को हर स्तर पर कोसा गया था। अखबारों ने फैसले की समीक्षा की और यह तलाश करने का प्रयास किया कि दोषी कौन है और सजा किसे मिलनी चाहिए। अपरोक्ष रूप से अखबार भी किसी न किसी के पक्षकार बन गये। यह सुनियोजित नहीं था लेकिन हुआ तो यही। तत्कालीन कांग्रेस सरकार, मुख्यमंत्री, अफसरान को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। अखबारों की इस रिपोर्टिंेग, लेख और साक्षात्कार गैस पीड़ितांे के दर्द से परे होकर राजनीतिक हमले पर केन्द्रीत हो गया। एक बार फिर वही होने लगा जो पहले होता रहा है मूल मुद्दा हवा में गुम हो गया और राजनीति छा गयी। अच्छा तो यह भी लगा कि मुआवजे की घोषणा के साथ बाजार की तैयारियों को भी खबरों में जगह दी गई। जाहिर है मुआवजे का पुराना अनुभव बाजार को है और बाजार को उम्मीद है कि इस बार फिर बाजार में ही मुआवजे की राशि अलग अलग सूरत में लौट आएगी। अखबारों के पच्चीस साल बाद की रिपोर्टिंेग में राहत के नाम पर मुआवजा का मुद्दा उठा। अलग अलग अखबारों में अलग अलग आंकड़े छपे लेकिन लगभग सबने कहा यह मुआवजा हमारी वजह से लेकिन कोई यह बताने वाला नहीं कि आखिर उनका दावा क्या था। यह मीडिया की प्रवृत्ति का द्योतक थी। आगे निकल जाने की होड़ में। इस सिलसिले में मुझे याद आता है कि हमें सिखाया जाता था कि किसी दुघर्टना में किसी की मौत दर्दनाक होती है किन्तु एक अखबारनवीस संवेदनशील होने के साथ बेरहम भी होता है। रिपोर्टर तो संवेदनशील होता है लेकिन अखबार का व्यवसाय उसे बेरहम बनाता है। जब कोई बड़ी दुघर्टना होती है तो अखबार की डेडलाइन के साथ हम यह देखते हैं कि मरने वालों की संख्या क्या हुई। हमारे प्रतिद्वंदी अखबार के आंकड़े से कम से कम दो तो हमारे ज्यादा हांे। झूठे आंकड़ें दे नहीं सकते और सच जानने के लिये किसी के जाने का इंतजार करना होता है। कुछ ऐसा ही भूमिका हर घटना दुघर्टना में अखबार की, रिपोर्टर की होती है, वह हुई। राहत के लिये मुआवजे की मिली रकम को अखबारांे ने नाकाफी बताया लेकिन बावजूद इसके वह यह दावा करने से नहीं चूके कि यह फैसला उनके कारण ही आया। व्यवसायिकता के इस दौर में यह अनपेक्षित नहीं है। हालांकि जब किसी की भूमिका का आप आंकलन करते हैं तो आपको उसके सकरात्मक और नकरात्मक दोनों पक्षों को तटस्थता के साथ देखना होता है। गैस त्रासदी के बारे में अखबारों की भूमिका पर भी यह केमिस्ट्री काम करती है। अखबारों ने पच्चीस बरस बाद भी पूरी शिद्दत के साथ भोपाल के अवाम के साथ खड़े दिखे, अच्छा लगा किन्तु प्रभावितों के इलाज को लेकर हो रही लापरवाही, भ्रष्टाचार और अनदेखी को भी उसी ताकत के साथ उठाते तो राहत के नये रास्ते खुल जाते। मुआवजा प्रभावितों को थोड़े समय के लिये राहत दे जाएगा किन्तु उनकी तकलीफ को पैसा नहीं दवा ही दूर कर पाएगी। इसके लिये अभी भी अखबारों से अपेक्षा है िकवह केम्पेन चलाये ताकि दुआ ही नहीं, प्रभावितों को दवा भी मिल सके।

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