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Wednesday, June 30, 2010

पोस्ट कार्ड का जन्म दिन

पोस्टकार्ड का जन्मदिन और गुम होते संपादक के नाम पत्र
मनोज कुमार

आज महज संयोग है कि जब मैं संपादक के नाम पत्र और पोस्टकार्ड की महत्ता पर लेख लिखने बैठा तभी पता चला कि आज एक जुलाई को पोस्टकार्ड का न केवल जन्म हुआ था बल्कि उसने अपने जन्म के सौ साल पूरे कर लिये हैं। पोस्टकार्ड हर आदमी के जीवन में बहुत मायने रखता है उसी तरह जिस तरह आज हर जेब के लिये मोबाइल फोन जरूरी हो गया है। इंटरनेट के बिना हमारा काम ही नहीं चलता है और टेलीविजन तो जैसे सांस लेने के लिये जरूरी है। इन आधुनिक तकनीकों के बावजूद पोस्टकार्ड की जरूरत कभी खत्म ही नहीं हुई। इस छोटे से कार्ड को खरीदने के लिये इस महंगाई के दौर में भी मात्र पचास पैसे खर्च करने होते हैं और इस पर कोई बिजली का खर्च नहीं होता है और न ही इसके लिये कोई कम्प्यूटर जैसी चीज की जरूरत होती है। मुझे लगता है कि पत्रकारिता में पोस्टकार्ड एक प्राथमिक कक्षा की तरह ही है जहां भावी पत्रकार अपना पहला सबक सीखते हैं। आइए इस पर थोड़ा विस्तार से बात करें।
अजय शर्मा मेरे दोस्त हैं । इन दिनों एनडीटीवी में समाचार संपादक के पद पर तैनात हैं। अपने आरंभिक दिनों में हम दोनों देशबन्धु के लिये लिखते थे। वे ग्वालियर से खबरें भेजा करते थे और मैं पहले रायपुर और बाद में भोपाल में देशबन्धु मंे बतौर उपसंपादक उन्हें एडिट किया करता था। मैं दैनिक देशबन्धु से भोपाल से निकल रहे साप्ताहिक देशबन्धु में आया था। यहीं हम दोनों की मित्रता हुई। लगभग पन्द्रह बरस से ज्यादा हो गये हमारी पहचान और दोस्ती को। एक दिन मैंने उनसे आग्रह किया कि समागम के लियेे अपनी लिखी पहली खबर की यादों को तफसील से लिखें। उन्होंने मेरे आग्रह को तो माना ही बल्कि जो लिखा, उसने मुझे एकबारगी पत्रकारिता के बरक्स कुछ और सोचने का विषय दे दिया। उन्होंने अपनी यादों में लिखा कि उनके द्वारा लिखा गया संपादक के नाम पत्र कैसे नईदुनिया में प्रकाशित हुआ और उस पत्र के कारण वे अपने शहर में अलग से पहचाने गये। यही नहीं, पत्र में लिखी गयी समस्या का भी तत्काल निदान हो गया। मैंने भी अपने आरंभिक दिनों में संपादक के नाम पत्र लिखा करता था। कभी एक कॉलम में तो कभी दो कॉलम में और कभी बहुत ही संपादित कर प्रकाशित हुआ करता था। इन प्रकाशित पत्रों को सम्हाल कर ऐसे रखते थे मानो किसी बैंक की पासबुक हो। संपादक के नाम पत्र लिखने की आदत बाद के सालों में भी बनी रही और कुछ पत्रिकाआंेे के
लेख/रिपोर्ताज पर अपनी प्रतिक्रिया छपने के लिये भेजता रहा। मजा तो यह था कि पत्रकारिता के कई साल गुजर जाने के बाद भी संपादक के नाम पत्र में अपना छपा नाम देखकर वही आनंद मिलता था, जो पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में मिलता था।
खैर, मुद्दे की बात पर आता हूं। अजय ने जब संपादक के नाम पत्र का उल्लेख किया तो मैं अखबारांे और पत्रिकाओं में तलाश करता रहा लेकिन काफी अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अब संपादक के नाम पत्र भेजने में किसी की दिलचस्पी नहीं रही। पाठक अखबारों से लगातार दूर होेते गये और उनकी प्रतिक्रिया के अभाव में पाठक और अखबार के बीच दूरी बनती जा रही है। किसी भी प्रकार का कार्य किया जाए उस पर प्रतिक्रिया आना जरूरी होता है और यही प्रतिक्रिया बताती है कि हम कितने सफल या असफल हैं और समाज हमारे बारे में क्या सोचता है। पत्रकारिता के लिये तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि आखिर हमारे लिखेे का समाज पर क्या असर हो रहा है और लोग हमारी लिखी चीजों को गंभीरता स ेले रहे हैं या नहीं, आदि-इत्यादि बातों का पता चलता है। एक समय था जब प्रतिक्रिया में सैकड़ों की तादात में पत्र आ जाते थे। चूंकि पोस्टकार्ड का आकार छोटा होता है इसलिये इसमें लिखी गयी बातें भी सारगर्भित होती थी। थोड़े शब्दों में अधिक लिखा जाता था। संभवतः मेरे समकालीन पत्रकारों को ज्ञात होगा कि संपादक के नाम पत्र में छपी समस्या अथवा किसी मुद्दे को उभारे जाने पर शासन प्रशासन में न केवल प्रतिक्रिया होती थी। अजय शर्मा का संपादक के नाम लिखे गये पत्र में उन्होंने इसी किस्म की बात को याद किया है।
आधुनिक समय में समय और स्थान की कमी होती जा रही है तब पोस्टकार्ड और भी महत्वपूर्ण हो गया है। यह केवल प्रतिक्रिया लिखने के लिये नहीं बल्कि उन नवोदित पत्रकारों को यह सीखने के लिये कि एक छोटे से पोस्टकार्ड में हम अपनी बात कितने प्रभावी ढंग से लिख सकते हैं। मैं जब कभी मीडिया के विद्यार्थियों के बीच जाता हूं तो पोस्टकार्ड ले जाना नहीं भूलता। उन्हें इसे पत्रकारिता की प्राथमिक कक्षा के रूप् में संबोधित करते हुए इसके महत्व को बताता हंू। ई-मेल और मोबाइल के जरिये बात हो रही है, एक्शन-रिएक्शन लिये दिये जा रहे हैं लेकिन इनका दस्तावेजीकरण नहीं हो पा रहा है। पोस्टकार्ड एक प्रकार का दस्तावेज हुआ करता था। पोस्टकार्ड के लिये बिजली की भी जरूरत नहीं है। एक रुपये के पेन से भी काम चल जाता है। आज पोस्टकार्ड के जन्मदिन पर पत्रकारिता में इसके महत्व को आंकने की जरूरत है।

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