यह तो कोई खबर नहीं है....
मनोज कुमार
एक सुसंस्कृति समाज के निर्माण में राजनीति और पत्रकारिता की भूमिका अहम होती है किन्तु इन दिनों दोनों ही अपने इस दायित्व को निभाने में असफल होते दिख रहे हैं। संयमित भाषा का उपयोग राजनेताओ को करना चाहिए और असंयमित भाषा के प्रकाशन से मीडिया को बचना चाहिए। न तो राजनेता अपनी भाषा संयमित कर पा रहे हैं और न मीडिया ऐसी असंयत भाषा के प्रकाशन से स्वयं को रोक पा रहा है। सनसनी और टीआरपी के फेर में ऐसे वक्तव्यों को प्रमुखता दी जा रही है। इससे न केवल समाज में गलत संदेश जा रहा है बल्कि मीडिया की वि·ासनीयता इन्हीं कारणों से कम होती जा रही है।
हिन्दी पत्रकारिता के महानायक राजेन्द्र माथुर कहते भी थे और लिखते भी थे कि जीवन से ज्यादा जरूरी है चरित्र और जब चरित्र की मौत हो जाती है तो वह मरने से भी बदतर होती है। इसके बरक्स वे पत्रकारों से कहते थे कि एक न्यायाधीश को फैसला सुनाने में भी वक्त लगता है किन्तु मीडिया चंद मिनटों में अपना फैसला सुना देती है जो कि सर्वथा गलत है। इन दिनों अखबारों में छप रही खबरों को देखकर विवेचना करने के बाद तो यही लगता है कि राजेन्द्र माथुर की सीख को भुला दिया गया है। खबरों के स्थान पर सनसनी को प्रमुखता दी जा रही है जो एक सुसंस्कृत समाज के विकास के लिये घातक है।
आज १६ जुलाई २०१० के अखबार में दो खबरें हैं। एक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने केन्द्रीय मंत्री सिब्बल को कह दिया है कि बजट के अभाव में वे मध्यप्रदेश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने में असमर्थ हैं और दूसरी खबर है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजयसिंह ने भाजपाध्यक्ष से पूछा है कि वे किसकी औलाद हैं। जाहिर तौर पर दूसरी खबर सनसनी फैलती है और इससे टीआरपी बढ़ती है, लोकप्रियता बढ़ने की संभावना जगाती है सो इस खबर को लगभग सभी अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित की है किन्तु दूसरी महत्वपूर्ण खबर को दिग्विजयसिंह के बयान के मुकाबले स्थान नहीं मिल पाया। दिग्विजयसिंह राजनेता हैं और वे शब्दों के खिलाड़ी भी हैं तो जाहिर है कि वे जनता में अपनी छवि बनाने के लिये ऐसे बयान देंगे किन्तु क्या मीडिया के लिये यह खबर इतनी महत्वपूर्ण हो गयी? इस मामले में मीडिया को स्वयं आत्मचिंतन की जरूरत है कि आखिर इस प्रकार के बयान को छाप कर वह समाज को क्या संदेश देना चाहती है।
शिक्षा का मुद्दा व्यक्ति विशेष या सरकार विशेष का मामला नहीं है बल्कि यह पूरे समाज का मामला है। शिक्षा पर सभी का अधिकार है और बजट के अभाव में शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने में सरकार असमर्थता जता रही है तो इस मुद्दे को मीडिया को अभियान के रूप में लेना चाहिए और कोशिश होनी चाहिए कि इसका परिणाम सकरात्मक निकले। एक बच्चा भी अशिक्षित रह जाता है तो यह मान लेना चाहिए कि एक पीढ़ी अशिक्षा का शिकार होने जा रही है। सवाल यह है कि मीडिया को यह मुद्दा क्यों नहीं बड़ा लगा, क्यों इसे उतना स्थान दिया गया जितना कि एक राजनेता के दैनंदिनी बयान को प्रमुखता दी गई। एक बयानबाजी और एक सामाजिक मुद्दे में मीडिया ने बयान को खबर मान लिया और गंभीर विषय को किनारे कर दिया गया।
मेरा यह नहीं कहना है कि दिग्विजयसिंह का बयान खबर नहीं है किन्तु महत्वपूर्ण खबर की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इसी खबर को हिन्दी दैनिकों ने पहले पन्ने पर प्रमुखता से प्रकाशित किया तो अंग्रेजी के हिन्दुस्तान टाइम्स ने भीतर के पन्ने पर। अब मीडिया को तय करना होगा कि कौन सी खबर है और कौन सी खबर को प्रमुखता दिया जाना समाज के हित में है। राजनेताओं की वाणी पर मीडिया संयम नहीं लगा सकता है किन्तु उनके असंयमित भाषा को संपादित तो कर ही सकता है। क्या हम इस दिशा में सोच पाएंगे?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। उनका ब्लॉग है http:/reportermanoj.blogspot.com)