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Sunday, July 25, 2010

samaj

जननी हमें माफ कर देना
मनोज कुमार
भारतीय संस्कृति में स्त्री की तुलना आदिकाल से देवीस्वरूपा के रूप् में की जाती रही है किन्तु सुप्रीमकोर्ट की फटकार के बाद केन्द्र सरकार का एक नया चेहरा सामने आया है जिसमें उनका रवैया स्त्री के प्रति नकरात्मक ही नहीं, अपमानजनक है। यहां मैं उन शब्दों का उपयोग करने से परहेज करता हूं जो श्रेणी स्त्री के लिये केन्द्र सरकार ने तय की है। यह इसलिये नहीं कि इससे किसी का बचाव होता है बल्कि मैं यह मानकर चलता हूं कि बार बार इन स्तरहीन शब्दों के उपयोग से स्त्री की प्रतिष्ठा पर आघात पहुंचाने में मैं भी कहीं न कहीं शामिल हो जाऊंगा और मैं इस पाप से स्वयं को मुक्त रखना चाहता हूं। केन्द्र सरकार के इस रवैये से केवल स्त्री जाति की ही नहीं बल्कि समूचे भारतीय समाज का अपमान हुआ है।
एक स्त्री मां होती है, बहन होती है, भाभी होती है, मांसी होती है और उसके रिश्ते नाना प्रकार के होते हैं जिसमें वह गंुथकर एक परिवार को आकार देती है। स्त्री गृहणी है तो उसका दायित्व और बढ़ जाता है। उसे पूरे परिवार को सम्हाल कर रखने की जवाबदारी होती है। कहना न होगा कि हर स्त्री यह जवाबदारी दबाव में नहीं बल्कि स्वयं के मन से लेती हैं। स्त्री को परिवार की प्रथम पाठशाला कहा गया है। आप और हम जब कल बच्चे थे तो मां रूपी स्त्री ने हमारे भीतर संस्कार डाले, जीवन का पाठ पढ़ाया, नैतिक और अनैतिक की समझ पैदा की और आज उसी स्त्री को हम ऐसे शब्द दे रहे हैं। मां रूपी इसी स्त्री ने हमें धन कमाने के गुण दिये, साहस दिया और वह समझ जिसमें किसी का नुकसान न हो और वही स्त्री आज हमारे लिये दया की पात्र बन गयी है, यह बात शायद किसी के समझ में न आये।
एक स्त्री जो रिश्ते में हमारी बहन होती है और हम भाई होने के नाते उसकी अस्मत की रक्षा की जवाबदारी लेते हैं। हर रक्षाबंधन पर वह हमारी कलाई पर राखी बांध कर हमारे उत्तरदायित्व का बोध कराती है, आज उसी स्त्री के लिये हमारे मन में यह कलुषित विचार कैसे आ सकते हैं। जिसकी जवाबदारी हमने ले रखी है, उससे हम कैसे फिर सकते हैं। मुझे लगता है िकइस बार रक्षाबंधन में हर बहन की आंखों में सवाल होगा कि क्या अब भी तुम मेरी रक्षा का वचन देते हो? हर भाई कहेगा हां लेकिन उसका मन आत्मग्लानि से भरा होगा। एक स्त्री जिसे हम भाभी का संबोधन देते हैं, मां की अनुपस्थिति में वह मां की भूमिका में रहती है। क्या इन्हें हम ऐसा कुछ कहेंगे जिससे उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचे? क्या उस स्त्री को हम ऐसा कुछ कह पाएंगे जिसे हम मांसी कहते हैं अर्थात मां जैसी को? क्या हम उन सारे रिश्तों को कभी ऐसा कहने की सोच भी सकते हैं जिनके कहने पर हम हमारी नजरों में छोटा हो जाते हैं।
आखिर में। क्या हम उस स्त्री को कुछ ऐसा अप्रतिष्ठाजनक कह पाएंगे जिसे हमारी संस्कृति, हमारे वेद अर्धाग्नि कहते हैं। अर्धाग्नि का अर्थ पुरूष का आधा हिस्सा। सात फेरों में हम समाज के सामने वचन देते हैं कि एक-दूसरे के सुख और दुख में सहभागी होंगे, क्या उन्हें हम ऐसे हिकारत भरे शब्दों से नवाज सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। सुप्रीमकोर्ट ने फटकार लगाकर स्त्री के आत्मसम्मान और उसकी अस्मिता को सम्मान देते हुए जो भूमिका अदा की है, उससे अदालत के प्रति समाज के मन में सम्मान का भाव बढ़ा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी कोर्ट इसी तरह चिंता कर गलत कामों को निरूत्साहित करता रहेगा। फिलहाल, जो स्थितियां हैं, उसमें मैं और हम जननी से उनकी प्रतिष्ठा पर आयी आंच के लिये माफी मांगते हैं।

Friday, July 16, 2010

media ki chinta

उदासीन पाठक और मीडिया की चिंता
मनोज कुमार

कल बहुत दिनों बाद विजयमनोहर तिवारी का फोन आया था। विजय आज के दौर के नयी पीढ़ी के उन थोड़े पत्रकारों में हैं जिनमें न केवल लिखने की समझ है बल्कि वे चीजों को समझने की कोशिश करते हैं। विजय की पत्रकारिता का सफर लम्बा भले ही न मानें लेकिन लगभग डेढ़ दशक से वे काम कर रहे हैं बल्कि अच्छा काम कर रहे हैं। बहरहाल, मुद्दे की बात पर आते हैं। विजय भास्कर की नेशनल ब्यूरो में हैं और काफी कुछ खोजी खबरों पर काम कर रहे हैं। भास्कर जैसे अखबार में एक कॉलम की जिस रिपोर्टर को जगह नहीं मिले, वहां विजय को लिखने के लिये पूरा का पूरा पन्ना मिल रहा है। पहले अफजल के मामले में पड़ताल कर विश्लेषाणत्मक रिपोर्ट लिखी, फिर गैस पर और ताजा रिपोर्ट अयोध्या पर। भास्कर में जब इस पर विजय की रिपोर्ट मैंने पढ़ी तो अच्छा लगा लेकिन सच तो यह है कि बहुत अच्छा नहीं लगा। रात में जब वापस उस रिपोर्ट को दुबारा पढ़ा और विश्लेषण करने लगा तो लगा कि बीस बरस बाद एक ऐतिहासिक घटना को मीडिया ने लगभग भुला दिया और वह भी तब जब इस मामले से जुड़े दिग्गज एक बार फिर उसी स्थान पर इकट्ठे हो रहे हैं जहां से भारत के इतिहास में एक पन्ना लिखा गया था।
आगे पाठ पीछे सपाट की बात हमें स्कूली दिनों में मास्टरजी कहा करते थे और घर पर पिता लेकिन यह बात मीडिया में भी लागू होगी, यह अब देखने को मिल रहा है। अयोध्या मामले की यह घटना बीस बरस पहले इतिहास के लिये जितनी महत्वपूर्ण थी, उतनी मीडिया के लिये और आज बीस बरस बाद भी यह घटना उतना ही अर्थ रखती है। मुझे पूरी तरह जानकारी तो नहीं है कि देश के किन और अखबारों ने इस खबर को कितना महत्व दिया किन्तु भोपाल से प्रकाशित होने वाले अखबारों में संभवतः भास्कर ने ही इसे प्रमुखता दी। अयोध्या पर इस रिपोर्ट के दो पक्ष हंैं पहला यह कि बीस बरस बाद इस घाव को कुरेदने की जरूरत क्यों पड़ी और दूसरा यह कि क्या हम इतिहास से सबक लेेने के लिये इन घटनाओं को याद नहीं करना चाहेंगे? मुझे लगता है कि दूसरी बात में ज्यादा दम है। इस बारे में थोड़ा विस्तार से बात करते हैं।
बीस बरस पहले जिन दिग्गजों के कहे जाने पर पूरा देश आंदोलित हो उठा था, बीस बरस बाद वही देश शांत है। इन बीस बरसों में काफी कुछ बदल गया है। जीवनशैली बदली है, राजनीति के अर्थ बदले हैं, मीडिया का चेहरा बदला है और आम आदमी के सोच में भी बदलाव दिखता है। पाठक और दर्शक पहले की तरह अब उत्साही नहीं हैं। वे हर घटना को महज राजनीति से रंगे दिखते हैं। बीस बरस पहले मंदिर के मुद्दे पर लोगों में जो भाव था, वह बरस दर बरस ठंडा पड़ता गया। वादों और बातों ने जैसे लोगों के विश्वास को तोड़ दिया था और यही वजह है कि बीस बरस बाद जब दिग्गज वापस अयोध्या में एकत्र हुए तो मामला किसी आग के राख में तब्दील हो जाने जैसा था। भास्कर की इस रिपोर्ट में कई बातों का खुलासा किया गया है किन्तु उन तथ्यों को शामिल नहीं किया गया जिसके कारण बीस बरस बाद खामोशी बनी रही। आम आदमी के मन को नहीं टटोला गया और न ही उन मनोवैज्ञानिकों से बात की गयी कि एक मामला अब अपने समय के साथ कब तक और कैसे गर्म रहता है और यह नहीं रहता तो उसके क्या कारण हैं। जो लोग कल तक आध्यात्मिक नेता के रूप् में आम आदमी के बीच स्थापित थे, आज उनकी छवि ठेठ राजसत्ता वाले नेता की बन गये है। इन लोगों को भी सामने लाना चाहिए था, तब शायद बात बनती। लेआउट के लिहाज से पन्ना खूबसूरत है किन्तु यह जान लेना जरूरी है कि अखबार प्रोडक्ट नहीं है और केवल खूबसूरत पैंकिंग से काम नहीं चलने वाला।
एक बच्चा जब स्कूल से किसी स्पर्धा में जीत कर आता है अथवा किसी विषय में अच्छे अंक पाता है तो वह चाहता है कि उसके पालक उसकी तारीफ करें। बच्चे की तारीफ की लालसा उचित है और लगभग यही मामला हम लोगों के साथ हैं। हम तारीफ नहीं चाहते बल्कि हम समालोचना के आकांक्षी हैं। हम जो लिख रहे हैं, वह अंतिम सत्य नहीं है किन्तु संशोधन, सुधार और बेहतर करने की गुंजाइश बहुत बनी रहती है। पाठकों की प्रतिक्रिया का खत्म हो जाने का अर्थ मीडिया के प्रभाव का आहिस्ता आहिस्ता खत्म हो जाना जैसा प्रतीत होता है। जब तक प्रभाव पता नहीं चलेगा, प्रभावी कैसे होगा। वह किसी भी क्षेत्र का मामला हो। विचारधारा तो जैसे युवापीढ़ी से गायब होती जा रही है। विचारधारा का अभाव ही प्रतिक्रिया से रोकता है। पूरे पन्ने की रिपोर्ट पर चर्चा नहीं होना, विस्मय नहीं, डर पैदा करता है। ऐसा डर जो भविष्य को आतंकित करता है कि आखिर हमारे लिखने का अर्थ क्या है। यह डर विजय और उन जैसे पत्रकारों को है जो वाजिब है। विजय ने बातों ही बातों में मुझसे कहा कि आप इस पर भले ही आलोचना लिखें, इसका यह अर्थ नहीं है कि वे अपनी तारीफ चाहते हैं, शायद उनकी मंशा मुद्दे की सामयिकता को जान लेने की है। पाठकों की यह चुप्पी क्यों, इस पर भी चिंतन की जरूरत है।
प्रतिक्रिया जाहिर करने वालों में युवा वर्ग हमेशा से आगे रहा है और इस समय युवावर्ग अपने आपमें गुम हो गया है। युवाओं में प्रगतिशील, वामपंथी, समाजवादी, आदि अनादि विचारों को लेकर जो बहस होती थी, वह लगभग खत्म हो गयी है। बाजारवाद ने उन्हें भ्रमित कर दिया है। चैबीसों घंटे कानों में इयरफोन लगाये वह गाना सुनने में मस्त है। एफएम ने उसे बता दिया है कि जीना है तो गाने सुनो, बेहद कमजोर और स्तरहीन संवाद कहो। समस्याएं कभी खत्म नहीं होने वाली किन्तु तुम गाना नहीं सुनोगे तो जीवन क ेमजे से मरहूम हो जाओेगे। कानों में दिन भर बजते रोमांटिक गानों ने युवाओं को मदमस्त कर दिया है। उन्हें न तो बीते कल की खबर है और न आने वाले दिनों की। एक साजिश युवाओं के साथ की जा रही है और इस साजिश में जाने-अनजाने में सब लोग शामिल हो गये हैं। बात विजय के एक रिपोर्ट की नहीं है, बात किसी एक अखबार की नहीं है बल्कि बात समूची पत्रकारिता की हो रही है जो इस समय आत्ममुग्ध है िकवह कितना अच्छा लिख रहा है किन्तु अब समय आ गया है िकवह चिंता करे कि उसके लिखे पर कोई अपनी प्रतिक्रिया जाहिर न करे तो इसे लिखे का, छपे का क्या अर्थ होगा। चिंतन का समय है, हम सबको इस पर विचार करना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। भोपाल से प्रकाशित मीडिया पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम के संपादक हैं।)

Thursday, July 15, 2010

aaj ki baat

यह तो कोई खबर नहीं है....
मनोज कुमार
एक सुसंस्कृति समाज के निर्माण में राजनीति और पत्रकारिता की भूमिका अहम होती है किन्तु इन दिनों दोनों ही अपने इस दायित्व को निभाने में असफल होते दिख रहे हैं। संयमित भाषा का उपयोग राजनेताओ को करना चाहिए और असंयमित भाषा के प्रकाशन से मीडिया को बचना चाहिए। न तो राजनेता अपनी भाषा संयमित कर पा रहे हैं और न मीडिया ऐसी असंयत भाषा के प्रकाशन से स्वयं को रोक पा रहा है। सनसनी और टीआरपी के फेर में ऐसे वक्तव्यों को प्रमुखता दी जा रही है। इससे न केवल समाज में गलत संदेश जा रहा है बल्कि मीडिया की वि·ासनीयता इन्हीं कारणों से कम होती जा रही है।

हिन्दी पत्रकारिता के महानायक राजेन्द्र माथुर कहते भी थे और लिखते भी थे कि जीवन से ज्यादा जरूरी है चरित्र और जब चरित्र की मौत हो जाती है तो वह मरने से भी बदतर होती है। इसके बरक्स वे पत्रकारों से कहते थे कि एक न्यायाधीश को फैसला सुनाने में भी वक्त लगता है किन्तु मीडिया चंद मिनटों में अपना फैसला सुना देती है जो कि सर्वथा गलत है। इन दिनों अखबारों में छप रही खबरों को देखकर विवेचना करने के बाद तो यही लगता है कि राजेन्द्र माथुर की सीख को भुला दिया गया है। खबरों के स्थान पर सनसनी को प्रमुखता दी जा रही है जो एक सुसंस्कृत समाज के विकास के लिये घातक है।

आज १६ जुलाई २०१० के अखबार में दो खबरें हैं। एक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने केन्द्रीय मंत्री सिब्बल को कह दिया है कि बजट के अभाव में वे मध्यप्रदेश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने में असमर्थ हैं और दूसरी खबर है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजयसिंह ने भाजपाध्यक्ष से पूछा है कि वे किसकी औलाद हैं। जाहिर तौर पर दूसरी खबर सनसनी फैलती है और इससे टीआरपी बढ़ती है, लोकप्रियता बढ़ने की संभावना जगाती है सो इस खबर को लगभग सभी अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित की है किन्तु दूसरी महत्वपूर्ण खबर को दिग्विजयसिंह के बयान के मुकाबले स्थान नहीं मिल पाया। दिग्विजयसिंह राजनेता हैं और वे शब्दों के खिलाड़ी भी हैं तो जाहिर है कि वे जनता में अपनी छवि बनाने के लिये ऐसे बयान देंगे किन्तु क्या मीडिया के लिये यह खबर इतनी महत्वपूर्ण हो गयी? इस मामले में मीडिया को स्वयं आत्मचिंतन की जरूरत है कि आखिर इस प्रकार के बयान को छाप कर वह समाज को क्या संदेश देना चाहती है।
शिक्षा का मुद्दा व्यक्ति विशेष या सरकार विशेष का मामला नहीं है बल्कि यह पूरे समाज का मामला है। शिक्षा पर सभी का अधिकार है और बजट के अभाव में शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने में सरकार असमर्थता जता रही है तो इस मुद्दे को मीडिया को अभियान के रूप में लेना चाहिए और कोशिश होनी चाहिए कि इसका परिणाम सकरात्मक निकले। एक बच्चा भी अशिक्षित रह जाता है तो यह मान लेना चाहिए कि एक पीढ़ी अशिक्षा का शिकार होने जा रही है। सवाल यह है कि मीडिया को यह मुद्दा क्यों नहीं बड़ा लगा, क्यों इसे उतना स्थान दिया गया जितना कि एक राजनेता के दैनंदिनी बयान को प्रमुखता दी गई। एक बयानबाजी और एक सामाजिक मुद्दे में मीडिया ने बयान को खबर मान लिया और गंभीर विषय को किनारे कर दिया गया।
मेरा यह नहीं कहना है कि दिग्विजयसिंह का बयान खबर नहीं है किन्तु महत्वपूर्ण खबर की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इसी खबर को हिन्दी दैनिकों ने पहले पन्ने पर प्रमुखता से प्रकाशित किया तो अंग्रेजी के हिन्दुस्तान टाइम्स ने भीतर के पन्ने पर। अब मीडिया को तय करना होगा कि कौन सी खबर है और कौन सी खबर को प्रमुखता दिया जाना समाज के हित में है। राजनेताओं की वाणी पर मीडिया संयम नहीं लगा सकता है किन्तु उनके असंयमित भाषा को संपादित तो कर ही सकता है। क्या हम इस दिशा में सोच पाएंगे?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। उनका ब्लॉग है http:/reportermanoj.blogspot.com)

Wednesday, July 7, 2010

samriti sha

स्मृति शेष : वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री

समझौता जिन्हें कभी मंजूर न था


-मनोज कुमार

आम दिनों की तरह आज भी अखबार समय पर आ गया था। रोज की तरह कुछ अलग किस्म की खबरें देख लेने की लालसा थी किन्तु आज का अखबार एक ऐसी खबर लेकर आएगा जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। लगभग हर अखबार के पहले पन्ने पर, किसी में सिंगल कॉलम की खबर तो किसी में बड़ी खबर पत्रकारिता के दिग्गज हस्ती रामशंकर अग्निहोत्री के नहीं रहने की थी। वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री हमारे बीच नहीं रहे, यह कहना और सुनना भला नहीं लगता है लेकिन सच से भला कौन मुंह मोड़ सकता है। सच तो यही है कि वे हमारे बीच नहीं रहे। इस सच के बाद भी एक सच यह है कि अपने सम्पूर्ण संघर्षमय जीवन में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अपनी शर्ताें पर जीते रहे और शिखर पर बैठे रहे। संघर्ष के बाद भी समझौता नहीं कर पाना अग्निहोत्रीजी जैसे लोगों के बूते की बात होती है। वे उन थोड़े से लोगों में हैं जो समाज के लिये आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे समाज को, खासतौर पर पत्रकारिता बिरादरी से संबंद्व नौजवानों को यह संदेश दे गये हैं कि निरपेक्ष भाव से काम करते रहें क्योंकि पत्रकारिता मांगती नहीं, देती है। मध्यप्रदेश के एक छोटी सी कस्बानुमा स्थान है सिवनी मालवा। सिवनीमालवा अपरिचित नहीं है। यह वह स्थान है जिसके पास में बसा है आज का माखननगर और पुराना बाबई। बाबई में पत्रकारिता के दिग्गज पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने जन्म लिया था और इसी पुण्यसलिला नर्मदा की नगरी के पास बसे सिवनी मालवा में अग्निहोत्री जी का जन्म हुआ। यहीं दैदिप्यमान पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री ने आज से ८१ बरस पहले वर्ष १९२६ के १४ अप्रेल को जन्म लिया।
पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री ही नहीं, उनके समकालीन लोगों से अपरिचित होगी, इस बात पर हैरानी नहीं होती है। पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी में अध्ययन और संवाद की कमी लगातार बढ़ रही है और यही कारण है कि पत्रकारिता के मील के पत्थर के रूप में स्थापित लोगों के बारे में उनका ज्ञान शून्य है। मैं भी कुछ वर्ष पहले तक केवल उनके बारे में पढ़ा और सुना था किन्तु भाई डॉ. सुरेन्द्र पाठक के जरिये उनसे परिचय हुआ। जब मैं उनसे मिलने पहुंचा था तो मन में यह बात थी कि वे जनसंघ के विचारों से हैं और पता नहीं पत्रकारिता में उनकी दृष्टि और सोच क्या होगी किन्तु मुलाकात होते ही मेरी सोच एकदम से बदल गयी। वे जनसंघ के विचारों के प्रणेता तो थे किन्तु इससे आगे वे प्रतिबद्व पत्रकार थे। उनका कमिटमेंट पत्रकारिता के प्रति था। उनका यह दूसरा पक्ष मैंने उनसे मिलने के बाद जाना और इसके बाद की मुलाकात मध्यप्रदेश सरकार द्वारा उन्हें अखिल भारतीय माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से सम्मानित किये जाने के समय हुई। इस दरम्यान बहुत थोड़े समय के लिये या यूं कहिये कि यह मुलाकात कुछ पल के लिये थी। लगभग अस्सी बरस के उम्रदराज पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री का शरीर समय के साथ भले ही कमजोर दिखने लगा था किन्तु ओज और तेजस्विता उनके चेहरे पर आज भी कायम थी। मेरी इस आखिरी मुलाकात में उन्होंने पत्रकारिता के संदर्भ में एक वाक्य बोल गये थे कि नौजवान हो, अभी काफी काम करना है। ध्यान रहे कि पत्रकारिता हमेशा निरपेक्ष हो क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है और दर्पण की अपनी जवाबदारी होती है।

डॉक्टर हरिसिंह गौर वि·ाविद्यालय सागर से स्नातक होने के बाद १९५२ में नागपुर से पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा हासिल की। पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद वे राष्ट्रवादी पत्रकारिता के पुरोधा के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। यह वह दौर था जब देश को आजादी मिली ही थी और पत्रकारिता विदेशी विचारधारा की अनुगामी बन रही थी। यहीं से उनके संघर्ष का दौर आरंभ होता है। पराधीन भारत की राष्ट्रवादी पत्रकारिता स्वतंत्र भारत में गुमनाम हो रही थी और ऐसे कठिन समय में सामने आने की हिम्मत रामशंकर अग्निहोत्री ने दिखायी। उन्होंने पांचजन्य के मध्यभारत संस्करण के बाद पांचजन्य के संपादक का दायित्व भी सम्हाला। मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म, प्रसंग लेख सेवा युगवार्ता और हिन्दुस्तान समाचार के संपादक का दायित्व भी निभाया। संपादक के रूप में दिल्ली से प्रकाशित सांध्य दैनिक आकाशवाणी का कार्यभार भी सम्हाला। वे देश के चुनिंदा पत्रकारों में शामिल रहे जिन्होंने युद्ध क्षेत्र की रिपोर्टिग की। वे हिन्दुस्तान समाचार न्यूज एजेंसी के पश्चिम क्षेत्र युद्ध संवाददाता भी रहे। पराधीन भारत की पत्रकारिता के बाद एक बार देश में फिर से पराधीनता का दौर देखा वर्ष १९७५ में जिसे भारतीय इतिहास आपातकाल के नाम से जानता है। इस दौर में पत्रकारिता करना शायद पराधीनता के समय से भी ज्यादा कठिन था। इस कठिन वक्त में अग्निहोत्रीजी ने एकीकृत समाचार न्यूज एजेंसी में उपसंपादक के रूप में कार्य किया। कहना न होगा कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता को इस दौर में उन्होंने नये रूप में परिभाषित कर हिन्दुस्तानियों में उनके आत्मसम्मान को जागृत किया। अनेक देशों की यात्राएं की और वहां के अनुभवों को अपनी लेखनी से लिपिबद्व किया। उनके लिखे जाने का अर्थ यही होता था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा। पत्रकारिता के साथ साथ वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुडे रहे! अनेक किस्म की जिम्मेदारियों का निर्वहन किया किन्तु पद के फेर में कभी नहीं रहे। शायद यही कारण है कि वे संघ के साथ साथ अन्य राजनीतिक दलों में भी सम्मान पाते रहे। पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री पर उम्र हमेशा से बेअसर रही और यही कारण है कि जब लोग इस उम्र में आकर आराम करना चाहते हैं तब भी वे सक्रिय रहे। आखिरी दिनों में भी उनकी सक्रियता नौजवान पीढ़ी के लिये मिसाल बनी रही। स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि·ाविद्यालय रायपुर में स्थापित मानव अध्ययन शोधपीठ के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते रहे। उनकी सृजन क्षमता अद्वितीय थी। उनकी लिखी किताबें कश्मीर के मोर्चे पर, राष्ट्रजीवन की दिशा, बाजी प्रभु देशपांडे, सुरक्षा के मोर्चे पर, अविस्मरणीस बाबा साहेब आप्टे, कम्युनिस्ट वि·ाासघात की कहानी, डॉ. हेगडेवार : एक चमत्कार और नया मसीहा की चर्चा होती रही। अग्निहोत्रीजी संवेदनशील व्यक्ति थे और उनकी संवेदना कविताओं में झरती थी। उनकी कृति सत्यम एकमेव उनकी संवेदना और राष्ट्र के प्रति अनुराग की बानगी है। पद और सम्मान से हमेशा खुद को अलग रखने वाले अग्निहोत्रीजी को उनके चाहने वाले हमेशा सम्मानित करने में आगे रहे। मध्यप्रदेश शासन के अखिल भारतीय माणिकचंद्र वाजपेयी पत्रकारिता पुरस्कार २००८ के अलावा इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती का डॉ. नगेन्द्र पुरस्कार, राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास का स्वर्गीय बापूराव लेले स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार तथा सप्रे संग्रहालय भोपाल का लाला बलदेवसिंह सम्मान प्रमुख हैं। ७ जुलाई २०१० का वह दिन हर साल उनकी याद दिलाता रहेगा। अग्निहोत्रीजी का ऐसे समय में चले जाना पत्रकारिता और समाज दोनों के लिये एक ऐसे स्थान का रिक्त हो जाना है जिसकी पूर्ति शायद ही कभी हो। वे नवोदित पत्रकारों के लिये पाठशाला थे तो राजनीति करने वालों के लिये शिक्षक। उनकी महत्ता इसी बात से जाहिर होती है जब के. सुदर्शन ने सार्वजनिक सभा में यह बात स्वीकार किया था कि आज वे जो कुछ हैं, अग्निहोत्रीजी के मार्गदर्शन के कारण हैं। यह ठीक है कि अग्निहोत्रीजी हमारे बीच नहीं रहे किन्तु उन्होंने जो रास्ता तय किया था, उस रास्ते पर चलने की, उनके आदर्शाें को आगे बढ़ाने की जवाबदारी समाज की है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं।)

Tuesday, July 6, 2010

wah sarkar

आम आदमी को महंगाई की मार, मंत्रियों को नयी कार
भाजपा हाइकमान एक तरफ ऐलान कर रहे हैं कि उनकी पार्टी महंगाई के खिलाफ अब हर रोज केन्द्र सरकार से दो दो हाथ करेगी। उनका मकसद साफ है। वे जनता को राहत दिलाना चाहते हैं और इसी मकसद को लेकर दो दिन पहले देशव्यापाी बंद का आयोजन किया गया था। जनता को राहत मिली हो या न मिली हो, भाजपा और उसके साथी दलों को जरूर आम आदमी का भरोसा मिला। इस भरोसे को आगे ले जाते इसके पहले मध्यप्रदेश की जनता को जोर का झटका बहुत जोर से लगा जब अखबारों में खबरें आयी कि प्रदेश सरकार अपने मंत्रियों को नयी गाड़ी और नये बंगले देगी। यही नहीं, स्टेट गैरेज से दो चालक भी दिये जाएंगे। सरकार के इस फैसले का अर्थ तो सरकार जानें लेकिन आम आदमी का निराश होना स्वाभाविक है।
जो नेता कल महंगाई को लेकर हल्ला मचा रहे थे, अब वही नेता नयी गाड़ियों में घूमेंगे। नये बंगलों में रहेंगे और आम आदमी दो जून की रोटी के लिये मर मर कर जीता रहेगा। सरकार अपने मंत्रियों को यह सुविधाएं पहली बार नहीं दे रही है और न ही सुविधाभोगी मंत्रियों की यह पहली बार सूची है। पूर्ववर्ती सरकारों के जमाने में भी ऐसा और कहीं इससे ज्यादा होता रहा है। फैसले का यह वक्त गलत तय किया गया। आज जब महंगाई के लिये जनता के हक में राजनीतिक दल सड़कों पर उतर रहे हैं, तब ऐसी घोषणा आम आदमी को रूला देती है। इसी सरकार के मंत्री गोपाल भार्गव के पहल की तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने मंत्रालय का काम मंत्रालय में करने की नीति के तहत बंगले से आफिस को बंद कर दिया। इससे न केवल काम में सुविधा होगी बल्कि दोहरे स्टेबलिसमेंट का खर्च बच सकेगा। मंत्री भी आखिर एक सामाजिक प्राणी हैं और उनकी निजता भी होती है किन्तु बंगले में कार्यालय होने से मंत्री की निजता पर बाधा होती है।
हमारी अपेक्षा है कि बाकि मंत्री भी गोपाल भार्गव के नक्शेकदम पर चलकर कुछ मॉडल पेश करें। गोपाल भार्गव से भी हमारी अपेक्षा है कि सरकार के ताजा फैसले को वे अपने ऊपर लागू होने से खुद को बचायें एवं दूसरों को भी ऐसा करने के लिये प्रेरित करें। इससे न केवल नेताओं का आदर्श आम आदमी के सामने प्रस्तुत होगा बल्कि सरकार की छवि भी आम आदमी में अच्छी बन सकेगी।

Monday, July 5, 2010

Netaji ki jay

महंगाई की चिंता मे घुलते राजनेता

मनोज कुमार

महंगाई की आग केन्द्र सरकार की लगायी हुई है तो उसमें घी डालने का काम विपक्षी राजनीतिक दलों ने किया है। महंगाई की मार से जूझते आम आदमी को रोज रोज किलकिल करना पड़ रही है। एक एक खर्चे में कटौती करनी होती है तब कहीं जाकर घर का खर्च चल पाता है। ऐसे में विपक्षी राजनीतिक दलों ने महंगाई के विरोध में एक पूरा दिन काम धाम चौपट कर दिया। महंगाई का विरोध किया जाना चाहिए किन्तु यह ढंग महंगाई को नियंत्रित करने के बजाय बढ़ाती ही है। मीडिया ने इस बंद के परिप्रेक्ष्य में व्यापक पड़ताल की तो कई जगहों से खबरें आयी कि अनेक घरो में चूल्हे नहीं जले। जले भी तो कहां से? दिहाड़ी मजदूरों को मजदूरी नहीं मिली तो राशन का इंतजाम कहां से हो और जब राशन का इंतजाम नहीं होगा तो चूल्हे कैसे जलेंगे। महंगाई बढ़ाने वाले और उसका विरोध करने वाला कोई नेता यह तो बताये कि उसके घर में कब चूल्हा नहीं जला। एसी कमरे और एसी कार में बैठकर बातें करना आसान है लेकिन रोज रोज मर कर जीते लोगों की तकलीफ का अंदाजा इनमें से किसी को नहीं है। संसद और विधानसभा सरकार नीतियों और कामों की आलोचना करने, विरोध करने के लिये बना है फिर देश का उत्पादन प्रभावित करने की जरूरत क्या और क्यों है? भारी भरकम बजट से चलने वाले इन सदनों में आम आदमी की बात रखने के लिये ही तो जनप्रतिनिधियों का चयन किया जाता है फिर भला उन्हें सड़क पर उतरने की जरूरत क्यों है। एकबारगी मान भी लें कि ऐसा करके वे सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं तो कोई ये बताये कि किस चीज की कीमत सस्ती हुई है। मैं अर्थशास्त्री तो नहीं हूं लेकिन एक बात दावे के साथ कह सकता हूं कि एक दिन के बंद से जो आर्थिक नुकसान हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति के लिये फिर कीमतों में बढ़ोत्तरी कर दी जाएंगी। विरोध का तरीका यह ठीक नहीं है। जापान में विरोध होता है तो आम आदमी को और अधिक काम करना होता है और हमारे यहां विरोध का मतलब काम ठप करना है। लाखों करोड़ों रुपये राजस्व की जो हानि हुई है, उसे कौन भरेगा। राजनीतिक दलों को आम आदमी की इतनी ही चिंता है तो अपने वेतन भत्ते को लेने से इंकार कर देना चाहिए किन्तु इस मामले में सब दल एक हैं। अभी चर्चा सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने की चल रही है और इस मामले में सब दल एकजुट हैं। दशमल शून्य प्रतिशत राजनेताओं को छोड़ दें तो लगभग सभी नेता मालदार हैं और उन्हें वेतन भत्ते की जरूरत नहीं है। मेरा मानना है कि आम आदमी को इन नेताओं के वेतन भत्ते के खिलाफ रोष जाहिर करना चाहिए। महंगाई की चिंता मे घुलते राजनेता कभी इस पर विचार करेंगे, ऐसे वक्त का देश की जनता को इंतजार रहेगा।

Friday, July 2, 2010

coldrink

कोलड्रिंक्स में अब उफान क्यों नहीं
मनोज कुमार
आज आइसक्रीम पार्लर पर जाकर मैंने कोक की मांग की और सधे हाथों से लगभग छह माह या इससे ज्यादा पहले जो बारह रुपये भुगतान करता था, वह करने लगा तो दुकानदार लगभग मुझे चिढ़ाते हुए कहा कि पन्द्रह रूप्ये लगेंगे। इस बारे में मेरा हर सवाल बेकार था क्योंकि दुकानदार को इससे कोई वास्ता नहीं। इसे संयोग ही कहेंगे कि जब मैं कोक और सुनीता नारायणनन के बारे में सोच रहा था तभी मेरी नजर एक आर्टिकलनुमा खबर पर पढ़ी जिसमें साफ्टडिंªक्स से होेने वाले मानव एवं धरती के नुकसान के बारे में तफसील से बयान किया गया था। यह महज संयोग ही था कि मैं और वह एक किताब एक ही प्लेटफार्म पर खड़े थे। सुनीता नारायणन ने कभी कोलड्रिंक्स में अब उफान पैदा कर दिया था। ठंडे पेय पदार्थ में इतनी गर्मी आ गयी थी कि लोग इसे पीने से परहेज करने लगे थे लेकिन जैसा होता आया है वैसा ही एक बार दोहराया गया और समय गुजरने के साथ साथ यह उफान ठंडा पड़ता गया। लोग भूलने लगे कि इसके पीने से क्या बीमारी होगी और हमारी धरती माता का कोख कैसे आहिस्ता आहिस्ता खोखला होता जा रहा है। एक बार चर्चा इसलिये शुरू हो रही है कि अभी इस विषय पर एक किताब आयी है। बहुत थोड़े से अखबार और पत्रिकाओं ने गौर किया है और इसमें प्रकाशित सामग्री को आम पाठक तक पहुंचाने का प्रयास किया है। तय बात है िकइस सामग्री का बहुत प्रभाव तब तक नहीं पड़ेगा जब तक कि मीडिया आक्रामक न हो जाए। सुनीता नारायणन ने जब मोर्चा खोला था तब मीडिया का तेवर भी आक्रामक था।
समय गुजरने के साथ साथ कोक और पेप्सी का मुद्दा परिदृश्य में चला गया। एक समय था जब मीडिया ने आक्रामक तेवर दिखाये तो इन पेय पदार्थों की कीमतों में अचानक गिरावट आ गयी। कहना न होगा कि कंपनी को उसके लाभ के प्रतिशत में भारी गिरावट दिखी लेकिन नुकसान हुआ होगा, यह कहना मुश्किल है। समय के साथ मामला ठंडा पड़ता गया और इन पेय पदार्थों का बाजार वापस गर्माता गया। चुपके से कब दामों में वृद्वि कर दी गई, किसी को खबर नहीं हुई। इन कंपनियों का फार्मूला बहुत अचूक होता है जब एक रूप्ये कीमत कम करते हैं तो लाखो रूप्ये के विज्ञापन देकर एक एक उपभोक्ता को पकड़ पकड़ कर बताने का प्रयास करते हैं किन्तु जब तीन रूप्ये कीमत बढ़ाते हैं तो किसी को खबर नहीं होने देते। आज इन पेय पदार्थों का मार्केट उछाल पर है और इसे पीने वाले हिन्दुस्तानी की तबीयत उतार पर। पर्यावरण को होने वाले नुकसान की तो पूछिये मत।
सवाल यह है कि एक सुनीता नारायणनन ने सामाजिक सरोकार के मुद्दे को आगे बढ़ाया। सब लोगों ने उनके फेवर में बात की। कहा बिलकुल ठीक है। तो फिर ऐसा क्या हो गया कि इसके बाद आगे कोई क्यों नहीं आया? एकदम से खामोशी क्यों छा गयी? क्यों अब इन पेय पदार्थों से होने वाले नुकसान के बारे में मीडिया फोरम में बातचीत नहीं हो रही है? स्कूलों में बच्चों को जो ताकीद दी जा रही थी, अचानक उस विषय को क्यों गायब कर दिया गया? हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये हम आजादी के साठ साल से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी लड़ रहे हैं तो पेप्सी और कोक की विदाई करने के लिये हम क्यों पीछे हट रहे हैं? इनके खिलाफ हमारी लड़ाई तेज क्यों नहीं हो रही है। शायद मामला राजस्व का है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की लड़ाई मंे सरकार के खजाने को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है लेकिन इनके खिलाफ कार्यवाही से कुछ तो नुकसान होगा। शराब और तंबाकू पर इसलिये ही अब तक प्रतिबंध नहीं लग पाया है क्योंकि सबसे ज्यादा राजस्व इनसे ही मिलता है। मीडिया को एक बार फिर इस मुद्दे पर आक्रामक होना होगा क्योंकि यह मामला सेहत का है।