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Thursday, June 24, 2010

aapatkal

यादें आपातकाल की और पत्रकारिता के विद्यार्थी
मनोज कुमार

आज अखबारों को देखकर अच्छा लगा कि लगभग सारे अखबारों ने किसी न किसी रूप में आपातकाल को याद किया है। आपातकाल भारतीय इतिहास का एक काला पन्ना है और इसके बारे में जानना सबके लिये बहुत जरूरी है। अखबारों में इस विषय पर प्रकाशित लेख और टिप्पणियों से पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी को समझने और सीखने का अवसर मिलेगा। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ जब मैं रूबरू होता हूं तो मुझे यह जानकर हैरानी होती है िकवे अपने ही देश के इतिहास से नावाकिफ हैं। आपातकाल के बारे में उनकी जानकारी शून्य है। उन्हें यह तो पता ही नहीं है कि देश में आपातकाल किस सन में लगा था। आपातकाल किसने लगाया था और क्यों लगा था, इसके बारे में जानकारी का तो कोई सवाल ही नहीं था। कदाचित कुछ विद्यार्थियों को आपातकाल क्या होता है, यह भी शायद पता नहीं होगा, किन्तु इसका खुलासा नहीं हो पाया। थोड़े से विद्यार्थी ऐसे भी थे जिन्हें अपने इतिहास की जानकारी थी, किन्तु उनका प्रतिशत बेहद कम है। अजानकारी की यह स्थिति एक सेमेस्टर के विद्यार्थियों की नहीं है बल्कि यह समस्या लगातार बनी हुई है। यह पत्रकारिता के लिये घातक है। जो विद्यार्थी अखबार और टेलीविजन की कमान सम्हालने आये हैं, जो कल के पत्रकार होंगे उनके लिये तो यह आवश्यक हो जाता है कि वे अपने बीते हुए कल को जानें। उनकी जानकारी इसलिये भी पुख्ता होना चाहिए क्योंकि उनकी जानकारी से समाज शिक्षित होता है। मीडिया की प्राथमिक जिम्मेदारी तीन खंडों में बांटी गयी है जिसमें समाज को सूचना देना, शिक्षित करना और उनका मनोरंजन करना है। ऐसे में वर्तमान में काम कर रहे पत्रकार हों या इस विधा में पारंगत हो रही नवागत पीढ़ी, उन्हें आपातकाल जैसे हर बड़े और जरूरी घटनाक्रम के बारे में विस्तार से जानना चाहिए। यही नहीं, इन घटनाक्रम के बाद देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में हुए बदलाव के बारे में अधिकाधिक जानना चाहिए। पत्रकारिता में बीता हुआ कल बहुत मायने रखता है। आज की स्थिति को बताने के लिये अथवा तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये बीते हुए कल को जानना बेहद जरूरी होता है। यह जाने बगैर कि कल भारत की स्थिति क्या थी, आज के भारत के विकास की मीमांसा करना लगभग मुश्किल है और जो किया जाता है, वह सतही है। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये आज का अखबार बेहद महत्वपूर्ण है। भोपाल के अखबारों ने अपनी अपनी तरह से आपातकाल की व्याख्या की है और आज के संदर्भ में कुछ नये तथ्यों और नई समस्याओं पर रोशनी डाली है। नईदुनिया ने आपताकाल को याद करते हुए राजेन्द्र माथुर के आलेख को प्रकाशित किया है। नईदुनिया ने आपातकाल के विरोध में सम्पादकीय हिस्से को रिक्त छोड़ दिया था। यह विरोध का अनोखा तरीका था जिसे आज की भाषा में गांधीगिरी कहा जा सकता है। इतिहास को जानने और इसे संग्रह करने के लिये पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये बेहतर अवसर है। वरिष्ठ पत्रकार एवं सम्पादक श्रवण गर्ग ने आपातकाल को याद करते हुए भास्कर के पहले पन्ने पर बेहद ज्वलंत मुद्दे को रेखांकित किया है। खाप पंचायतों के बारे में उनकी टिप्पणी सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता का आइना है। आपातकाल के साथ साथ आज की परिस्थिति का विश्लेषण पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये लगभग एक पाठ है और जिसे हर विद्यार्थी को पढ़ा जाना चाहिए। पत्रिका और अन्य अखबारों ने भी आपातकाल और वर्तमान स्थिति की तुलना करते हुए काफी कुछ लिखा है।
अभी हाल ही में भोपाल गैस त्रासदी को लेकर भी अखबारों ने जो विशेष सामग्री प्रकाशित की है, वह पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये पठनीय एवं संदर्भ सामग्री के रूप् में संग्रहणीय है। एक अच्छे पत्रकार के पास संदर्भ सामग्री का जखीरा होना चाहिए जिसे वह समय समय पर उपयोग कर सके। संदर्भ सामग्री के अभाव में अधूरी और अपुष्ट जानकारी दी जाती है जिससे न केवल पत्रकार की प्रतिभा प्रभावित होती है बल्कि उसकी विश्वसनीयता भी। पुस्तकालय से दूर होते विद्यार्थियों को वापस पुस्तकालय की ओर लौटने की जरूरत है और तब तक प्रतिदिन के अखबारों में समसामयिक विषयों पर प्रकाशित होने वाली सामग्री के संग्रहण और संचयन की प्रवृत्ति डाल लेनी चाहिए। (फोटो गूगल से साभार)

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