Pages

Saturday, June 26, 2010

paetish saal bad

कहां से चले थे और कहां पहुंच गए हम
मनोज कुमार
पैंतीस बरस बाद जब हम भारतीय इतिहास के आपातकाल के उन दिनों को याद करते हैं तो मन एक बार फिर कसैला हो जाता है किन्तु साथ ही गर्व करते हैं कि तत्कालीन सरकार के इस तानाशाही रवैये का हिन्दी पत्रकारिता ने पुरजोर विरोध किया था। जैसा कि होता है आपातकाल के दरम्यान सबसे पहला प्रहार पत्रकारिता पर ही हुआ था। अखबारों के दफ्तरों में पहरा बिठा दिया गया था। अखबार छपने के पहले सरकारी नुमाइंदे उसे पढ़ते, जांचते और फिर छपने के लिये दिया जाता था। अखबारों की यह मजबूरी थी किन्तु इस मजबूरी के चलते हथियार नहीं डाला गया बल्कि पूरी ताकत के साथ लड़ा गया। यह वह समय था जब अखबारों की तादाद कम थी लेकिन जो भी थे, प्रभावशाली। एक एक शब्द हथौड़ी की तरह चोट कर जाता था। समाज अखबार में छपी खबरों को गंभीरता से लेता था। समय गुजरता गया। साल दर साल आपातकाल की बात पुरानी होती गयी। नयी पीढ़ी को तो बहुत कुछ पता ही नहीं। इस बीच पत्रकारिता से मीडिया का स्वरूप बन गया और वह दिन ब दिन विस्तार पा रहा है। आकाशीय चैनलों की धूम है और अखबारों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है।
खैर, इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि पत्रकारिता इतिहास रचती है। आपातकाल का पुरजोर विरोध कर पत्रकारिता ने यह जता दिया था। जिस पत्रकारिता ने अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर किया था, उसमें इतनी ताकत बची है कि वह बार बार और हर बार ऐसे तानशाह को मुंहतोड़ जवाब दिया। इस बार जब आपातकाल के पैंतीस बरस हुए तो अखबारों में विशेष सामग्री दी गई। यह एक कोशिश थी जिसे अच्छा ही कहा जाएगा। इतिहास से बेखबर पीढ़ी को आपातकाल के बारे में जानने और समझने का अवसर मिला है। आपातकाल की जो गूंज थी, इन पैंतीस सालों में वह धीमी पड़ गयी है तो पत्रकारिता के तेवर भी बदले हुए हैं। पैंतीस बरस पहले शायद पत्रकारिता को लेकर कभी कोई सवाल या संशय की स्थिति नहीं बनी। अखबार यानि सच और सच का मतलब सिर्फ सच हुआ करता था किन्तु इन सालों में इस सच का मतलब बदलता हुआ दिख रहा है। समाज का चौथा स्तंभ कहलाने वाली पत्रकारिता की वि·ासनीयता पर कभी आंच नहीं आयी और ऐसा होता तो शायद न कभी अंग्रेज भारत छोड़ कर जा पाते और न ही आपातकाल का अंत हो पाता लेकिन आज ऐसा हो रहा है।
पत्रकारिता को लेकर सवाल पर सवाल दागे जा रहे हैं। पत्रकारिता की वि·ासनीयता कटघरे में है। अवि·ाास के इस दौर में पत्रकारिता को विस्तार भी मिला है किन्तु एक उत्पाद के रूप में। पैंतीस बरस पहले भी अखबार व्यवसायिक थे और इसके लिये एक पन्ना तय होता था जिसमें व्यापार की खबरें छपा करती थी किन्तु अब एकाध पन्ने को छोड़कर पूरा अखबार व्यापार करने लगा है और इसी के साथ खबरों की वि·ासनीयता घटने लगी है। कंटेंट को लेकर अब अखबारों में कोई चिंता नहीं दिखती है बल्कि कलेवर को लेकर चिंता ज्यादा है। सामाजिक सरोकार की खबरें हाशिये पर है और लाइफस्टाइ, फैशन के लिये पूरा पूरा पन्ना छापा जा रहा है। पैंतीस साल के इस सफर में हिन्दी पत्रकारिता की उपलब्धि यह रही कि अंग्रेजी के अखबारों और पत्रिकाओं को हिन्दी में आना पड़ा लेकिन यह उपलब्धि सही मायने में बाजार की मानी जानी चाहिए क्योंकि हिन्दी का बाजार बड़ा है। इस बात को अंग्रेजी प्रबंधन ने खूब जाना और वे हिन्दी पर अहसान थोपते हुए हिन्दी बाजार में आ गये। अपने आने के साथ साथ वे पत्रकारिता के साथ बाजार का व्यवहार करने लगे। अखबारों में उपहारों की बरसात होने लगी। बस वैसे ही जैसे बाजार में उपलब्ध अन्य उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिये कोई कारोबारी करता है। उपहार स्कीम ने भी अखबारों की प्रतिष्ठा एवं प्रभाव को कम किया है क्योंकि जिन अखबारों को उसके कंटेंट के लिये सम्हाल कर रखा जाता था, आज वही अखबार सहेजे जा रहे हैं उपहार पाने के लिये कूपन बटोरेने के खातिर।
इन सालों में हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार होता गया। हर बड़े कारोबारी घराने को यह सुहाने लगा कि वह भी अपना एक अखबार या पत्रिका निकाल ले। कुछ इस कोशिश में सफल भी हुए तो अधिकांश केवल ढो रहे हैं। अखबारों के नाम भी विचित्र से रखे जाने लगे हैं। कुछ सुझा नहीं तो अपनी ही संस्था के नाम के आगे पीछे कुछ जोड़जाड़ कर आरंभ कर दिया। मोटी तनख्वाह देकर कुछ दक्ष पत्रकारों को साथ ले लिया और बाकि का स्टाफ नौसिखियों से भर लिया गया। कंटेंट का तो इन अखबारों में कोई सवाल ही नहीं था। साधन की कमी नहीं थी सो कारोबारियों के अखबार साध्य में लग गये। राजनीति और प्रशासन में अखबार के जरिये पहुंच और पकड़ बनाने लगे। जिन्हें कभी अपने कारोबार के काम को सहज बनाने के लिये भेंट देना होती थी, उसमें उन्हें पूरी तरह छूट या रियायत मिलने लगी। उनके अखबार निकालने का मकसद यही था और यह पूरा होने लगा।
आपातकाल में अखबार कहर ढा रहे थे, आज वही अखबारों पेडन्यूज के मामले में विवादों के घेरे में है। जांच चल रही है, बातें हो रही है, चेतावनी मिल रही है और नजरें भी रखी जा रही हैं। कितने दुर्भाग्य की बात कि कल जो पत्रकारिता समाज के विरोधियों पर नजरें रखती थी, आज उस पर दूसरों की नजरें हैं। पैसे लेकर खबर छापने के कारण पत्रकारिता की वि·ासनीयता पर भी आंच आयी है। पैंतीस बरस बाद इतिहास के काले पन्ने को याद कर हम सिहर उठते हैं लेकिन आज जो पत्रकारिता के हालात हैं, वह भी सिहरन पैदा करती है। इन पैंतीस सालों में हिन्दी पत्रकारिता में सम्पादक नाम की संस्था का लोप होता जा रहा है। मालिक स्वयं सम्पादक बन बैठे हैं और कानूनी बाध्यता झेलने के लिये एक कार्यकारी सम्पादक बिठा दिया जाता है। यह बदलाव भी पीड़ादायक है।
इन पैंतीस सालों में मंझोले किस्म के कस्बाई अखबार जरूर उम्मीद की रोशनी जगाते हैं। बड़े समाचार समूहों के मल्टीएडीशन अखबारों के चलते एक शहर की खबर दूसरे शहर में नहीं पहुंच पा रही है किन्तु सीमित संसाधनों में निकलने वाले अखबार इस कमी को पूरा कर रहे हैं। उनके पास आम आदमी की पीड़ा छापने के लिये अभी जगह बाकि है क्योंकि उन्हें मल्टीनेशनल कंपनी के लुभावने विज्ञापन नहीं मिल पा रहे हैं। पैंतीस बरस की हिन्दी पत्रकारिता नाउम्मीद ही करती है। हालांकि इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता में घटाघोप अंधेरा छा गया है।