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Friday, July 16, 2010

media ki chinta

उदासीन पाठक और मीडिया की चिंता
मनोज कुमार

कल बहुत दिनों बाद विजयमनोहर तिवारी का फोन आया था। विजय आज के दौर के नयी पीढ़ी के उन थोड़े पत्रकारों में हैं जिनमें न केवल लिखने की समझ है बल्कि वे चीजों को समझने की कोशिश करते हैं। विजय की पत्रकारिता का सफर लम्बा भले ही न मानें लेकिन लगभग डेढ़ दशक से वे काम कर रहे हैं बल्कि अच्छा काम कर रहे हैं। बहरहाल, मुद्दे की बात पर आते हैं। विजय भास्कर की नेशनल ब्यूरो में हैं और काफी कुछ खोजी खबरों पर काम कर रहे हैं। भास्कर जैसे अखबार में एक कॉलम की जिस रिपोर्टर को जगह नहीं मिले, वहां विजय को लिखने के लिये पूरा का पूरा पन्ना मिल रहा है। पहले अफजल के मामले में पड़ताल कर विश्लेषाणत्मक रिपोर्ट लिखी, फिर गैस पर और ताजा रिपोर्ट अयोध्या पर। भास्कर में जब इस पर विजय की रिपोर्ट मैंने पढ़ी तो अच्छा लगा लेकिन सच तो यह है कि बहुत अच्छा नहीं लगा। रात में जब वापस उस रिपोर्ट को दुबारा पढ़ा और विश्लेषण करने लगा तो लगा कि बीस बरस बाद एक ऐतिहासिक घटना को मीडिया ने लगभग भुला दिया और वह भी तब जब इस मामले से जुड़े दिग्गज एक बार फिर उसी स्थान पर इकट्ठे हो रहे हैं जहां से भारत के इतिहास में एक पन्ना लिखा गया था।
आगे पाठ पीछे सपाट की बात हमें स्कूली दिनों में मास्टरजी कहा करते थे और घर पर पिता लेकिन यह बात मीडिया में भी लागू होगी, यह अब देखने को मिल रहा है। अयोध्या मामले की यह घटना बीस बरस पहले इतिहास के लिये जितनी महत्वपूर्ण थी, उतनी मीडिया के लिये और आज बीस बरस बाद भी यह घटना उतना ही अर्थ रखती है। मुझे पूरी तरह जानकारी तो नहीं है कि देश के किन और अखबारों ने इस खबर को कितना महत्व दिया किन्तु भोपाल से प्रकाशित होने वाले अखबारों में संभवतः भास्कर ने ही इसे प्रमुखता दी। अयोध्या पर इस रिपोर्ट के दो पक्ष हंैं पहला यह कि बीस बरस बाद इस घाव को कुरेदने की जरूरत क्यों पड़ी और दूसरा यह कि क्या हम इतिहास से सबक लेेने के लिये इन घटनाओं को याद नहीं करना चाहेंगे? मुझे लगता है कि दूसरी बात में ज्यादा दम है। इस बारे में थोड़ा विस्तार से बात करते हैं।
बीस बरस पहले जिन दिग्गजों के कहे जाने पर पूरा देश आंदोलित हो उठा था, बीस बरस बाद वही देश शांत है। इन बीस बरसों में काफी कुछ बदल गया है। जीवनशैली बदली है, राजनीति के अर्थ बदले हैं, मीडिया का चेहरा बदला है और आम आदमी के सोच में भी बदलाव दिखता है। पाठक और दर्शक पहले की तरह अब उत्साही नहीं हैं। वे हर घटना को महज राजनीति से रंगे दिखते हैं। बीस बरस पहले मंदिर के मुद्दे पर लोगों में जो भाव था, वह बरस दर बरस ठंडा पड़ता गया। वादों और बातों ने जैसे लोगों के विश्वास को तोड़ दिया था और यही वजह है कि बीस बरस बाद जब दिग्गज वापस अयोध्या में एकत्र हुए तो मामला किसी आग के राख में तब्दील हो जाने जैसा था। भास्कर की इस रिपोर्ट में कई बातों का खुलासा किया गया है किन्तु उन तथ्यों को शामिल नहीं किया गया जिसके कारण बीस बरस बाद खामोशी बनी रही। आम आदमी के मन को नहीं टटोला गया और न ही उन मनोवैज्ञानिकों से बात की गयी कि एक मामला अब अपने समय के साथ कब तक और कैसे गर्म रहता है और यह नहीं रहता तो उसके क्या कारण हैं। जो लोग कल तक आध्यात्मिक नेता के रूप् में आम आदमी के बीच स्थापित थे, आज उनकी छवि ठेठ राजसत्ता वाले नेता की बन गये है। इन लोगों को भी सामने लाना चाहिए था, तब शायद बात बनती। लेआउट के लिहाज से पन्ना खूबसूरत है किन्तु यह जान लेना जरूरी है कि अखबार प्रोडक्ट नहीं है और केवल खूबसूरत पैंकिंग से काम नहीं चलने वाला।
एक बच्चा जब स्कूल से किसी स्पर्धा में जीत कर आता है अथवा किसी विषय में अच्छे अंक पाता है तो वह चाहता है कि उसके पालक उसकी तारीफ करें। बच्चे की तारीफ की लालसा उचित है और लगभग यही मामला हम लोगों के साथ हैं। हम तारीफ नहीं चाहते बल्कि हम समालोचना के आकांक्षी हैं। हम जो लिख रहे हैं, वह अंतिम सत्य नहीं है किन्तु संशोधन, सुधार और बेहतर करने की गुंजाइश बहुत बनी रहती है। पाठकों की प्रतिक्रिया का खत्म हो जाने का अर्थ मीडिया के प्रभाव का आहिस्ता आहिस्ता खत्म हो जाना जैसा प्रतीत होता है। जब तक प्रभाव पता नहीं चलेगा, प्रभावी कैसे होगा। वह किसी भी क्षेत्र का मामला हो। विचारधारा तो जैसे युवापीढ़ी से गायब होती जा रही है। विचारधारा का अभाव ही प्रतिक्रिया से रोकता है। पूरे पन्ने की रिपोर्ट पर चर्चा नहीं होना, विस्मय नहीं, डर पैदा करता है। ऐसा डर जो भविष्य को आतंकित करता है कि आखिर हमारे लिखने का अर्थ क्या है। यह डर विजय और उन जैसे पत्रकारों को है जो वाजिब है। विजय ने बातों ही बातों में मुझसे कहा कि आप इस पर भले ही आलोचना लिखें, इसका यह अर्थ नहीं है कि वे अपनी तारीफ चाहते हैं, शायद उनकी मंशा मुद्दे की सामयिकता को जान लेने की है। पाठकों की यह चुप्पी क्यों, इस पर भी चिंतन की जरूरत है।
प्रतिक्रिया जाहिर करने वालों में युवा वर्ग हमेशा से आगे रहा है और इस समय युवावर्ग अपने आपमें गुम हो गया है। युवाओं में प्रगतिशील, वामपंथी, समाजवादी, आदि अनादि विचारों को लेकर जो बहस होती थी, वह लगभग खत्म हो गयी है। बाजारवाद ने उन्हें भ्रमित कर दिया है। चैबीसों घंटे कानों में इयरफोन लगाये वह गाना सुनने में मस्त है। एफएम ने उसे बता दिया है कि जीना है तो गाने सुनो, बेहद कमजोर और स्तरहीन संवाद कहो। समस्याएं कभी खत्म नहीं होने वाली किन्तु तुम गाना नहीं सुनोगे तो जीवन क ेमजे से मरहूम हो जाओेगे। कानों में दिन भर बजते रोमांटिक गानों ने युवाओं को मदमस्त कर दिया है। उन्हें न तो बीते कल की खबर है और न आने वाले दिनों की। एक साजिश युवाओं के साथ की जा रही है और इस साजिश में जाने-अनजाने में सब लोग शामिल हो गये हैं। बात विजय के एक रिपोर्ट की नहीं है, बात किसी एक अखबार की नहीं है बल्कि बात समूची पत्रकारिता की हो रही है जो इस समय आत्ममुग्ध है िकवह कितना अच्छा लिख रहा है किन्तु अब समय आ गया है िकवह चिंता करे कि उसके लिखे पर कोई अपनी प्रतिक्रिया जाहिर न करे तो इसे लिखे का, छपे का क्या अर्थ होगा। चिंतन का समय है, हम सबको इस पर विचार करना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। भोपाल से प्रकाशित मीडिया पर एकाग्र मासिक पत्रिका समागम के संपादक हैं।)

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