स्मृति शेष : वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री
समझौता जिन्हें कभी मंजूर न था
-मनोज कुमार
आम दिनों की तरह आज भी अखबार समय पर आ गया था। रोज की तरह कुछ अलग किस्म की खबरें देख लेने की लालसा थी किन्तु आज का अखबार एक ऐसी खबर लेकर आएगा जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। लगभग हर अखबार के पहले पन्ने पर, किसी में सिंगल कॉलम की खबर तो किसी में बड़ी खबर पत्रकारिता के दिग्गज हस्ती रामशंकर अग्निहोत्री के नहीं रहने की थी। वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री हमारे बीच नहीं रहे, यह कहना और सुनना भला नहीं लगता है लेकिन सच से भला कौन मुंह मोड़ सकता है। सच तो यही है कि वे हमारे बीच नहीं रहे। इस सच के बाद भी एक सच यह है कि अपने सम्पूर्ण संघर्षमय जीवन में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अपनी शर्ताें पर जीते रहे और शिखर पर बैठे रहे। संघर्ष के बाद भी समझौता नहीं कर पाना अग्निहोत्रीजी जैसे लोगों के बूते की बात होती है। वे उन थोड़े से लोगों में हैं जो समाज के लिये आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे समाज को, खासतौर पर पत्रकारिता बिरादरी से संबंद्व नौजवानों को यह संदेश दे गये हैं कि निरपेक्ष भाव से काम करते रहें क्योंकि पत्रकारिता मांगती नहीं, देती है। मध्यप्रदेश के एक छोटी सी कस्बानुमा स्थान है सिवनी मालवा। सिवनीमालवा अपरिचित नहीं है। यह वह स्थान है जिसके पास में बसा है आज का माखननगर और पुराना बाबई। बाबई में पत्रकारिता के दिग्गज पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने जन्म लिया था और इसी पुण्यसलिला नर्मदा की नगरी के पास बसे सिवनी मालवा में अग्निहोत्री जी का जन्म हुआ। यहीं दैदिप्यमान पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री ने आज से ८१ बरस पहले वर्ष १९२६ के १४ अप्रेल को जन्म लिया।
पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी वरिष्ठ पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री ही नहीं, उनके समकालीन लोगों से अपरिचित होगी, इस बात पर हैरानी नहीं होती है। पत्रकारिता की नवागत पीढ़ी में अध्ययन और संवाद की कमी लगातार बढ़ रही है और यही कारण है कि पत्रकारिता के मील के पत्थर के रूप में स्थापित लोगों के बारे में उनका ज्ञान शून्य है। मैं भी कुछ वर्ष पहले तक केवल उनके बारे में पढ़ा और सुना था किन्तु भाई डॉ. सुरेन्द्र पाठक के जरिये उनसे परिचय हुआ। जब मैं उनसे मिलने पहुंचा था तो मन में यह बात थी कि वे जनसंघ के विचारों से हैं और पता नहीं पत्रकारिता में उनकी दृष्टि और सोच क्या होगी किन्तु मुलाकात होते ही मेरी सोच एकदम से बदल गयी। वे जनसंघ के विचारों के प्रणेता तो थे किन्तु इससे आगे वे प्रतिबद्व पत्रकार थे। उनका कमिटमेंट पत्रकारिता के प्रति था। उनका यह दूसरा पक्ष मैंने उनसे मिलने के बाद जाना और इसके बाद की मुलाकात मध्यप्रदेश सरकार द्वारा उन्हें अखिल भारतीय माणिकचंद्र वाजपेयी सम्मान से सम्मानित किये जाने के समय हुई। इस दरम्यान बहुत थोड़े समय के लिये या यूं कहिये कि यह मुलाकात कुछ पल के लिये थी। लगभग अस्सी बरस के उम्रदराज पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री का शरीर समय के साथ भले ही कमजोर दिखने लगा था किन्तु ओज और तेजस्विता उनके चेहरे पर आज भी कायम थी। मेरी इस आखिरी मुलाकात में उन्होंने पत्रकारिता के संदर्भ में एक वाक्य बोल गये थे कि नौजवान हो, अभी काफी काम करना है। ध्यान रहे कि पत्रकारिता हमेशा निरपेक्ष हो क्योंकि पत्रकारिता समाज का दर्पण है और दर्पण की अपनी जवाबदारी होती है।
डॉक्टर हरिसिंह गौर वि·ाविद्यालय सागर से स्नातक होने के बाद १९५२ में नागपुर से पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा हासिल की। पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद वे राष्ट्रवादी पत्रकारिता के पुरोधा के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। यह वह दौर था जब देश को आजादी मिली ही थी और पत्रकारिता विदेशी विचारधारा की अनुगामी बन रही थी। यहीं से उनके संघर्ष का दौर आरंभ होता है। पराधीन भारत की राष्ट्रवादी पत्रकारिता स्वतंत्र भारत में गुमनाम हो रही थी और ऐसे कठिन समय में सामने आने की हिम्मत रामशंकर अग्निहोत्री ने दिखायी। उन्होंने पांचजन्य के मध्यभारत संस्करण के बाद पांचजन्य के संपादक का दायित्व भी सम्हाला। मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म, प्रसंग लेख सेवा युगवार्ता और हिन्दुस्तान समाचार के संपादक का दायित्व भी निभाया। संपादक के रूप में दिल्ली से प्रकाशित सांध्य दैनिक आकाशवाणी का कार्यभार भी सम्हाला। वे देश के चुनिंदा पत्रकारों में शामिल रहे जिन्होंने युद्ध क्षेत्र की रिपोर्टिग की। वे हिन्दुस्तान समाचार न्यूज एजेंसी के पश्चिम क्षेत्र युद्ध संवाददाता भी रहे। पराधीन भारत की पत्रकारिता के बाद एक बार देश में फिर से पराधीनता का दौर देखा वर्ष १९७५ में जिसे भारतीय इतिहास आपातकाल के नाम से जानता है। इस दौर में पत्रकारिता करना शायद पराधीनता के समय से भी ज्यादा कठिन था। इस कठिन वक्त में अग्निहोत्रीजी ने एकीकृत समाचार न्यूज एजेंसी में उपसंपादक के रूप में कार्य किया। कहना न होगा कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता को इस दौर में उन्होंने नये रूप में परिभाषित कर हिन्दुस्तानियों में उनके आत्मसम्मान को जागृत किया। अनेक देशों की यात्राएं की और वहां के अनुभवों को अपनी लेखनी से लिपिबद्व किया। उनके लिखे जाने का अर्थ यही होता था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा। पत्रकारिता के साथ साथ वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुडे रहे! अनेक किस्म की जिम्मेदारियों का निर्वहन किया किन्तु पद के फेर में कभी नहीं रहे। शायद यही कारण है कि वे संघ के साथ साथ अन्य राजनीतिक दलों में भी सम्मान पाते रहे। पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री पर उम्र हमेशा से बेअसर रही और यही कारण है कि जब लोग इस उम्र में आकर आराम करना चाहते हैं तब भी वे सक्रिय रहे। आखिरी दिनों में भी उनकी सक्रियता नौजवान पीढ़ी के लिये मिसाल बनी रही। स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि·ाविद्यालय रायपुर में स्थापित मानव अध्ययन शोधपीठ के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते रहे। उनकी सृजन क्षमता अद्वितीय थी। उनकी लिखी किताबें कश्मीर के मोर्चे पर, राष्ट्रजीवन की दिशा, बाजी प्रभु देशपांडे, सुरक्षा के मोर्चे पर, अविस्मरणीस बाबा साहेब आप्टे, कम्युनिस्ट वि·ाासघात की कहानी, डॉ. हेगडेवार : एक चमत्कार और नया मसीहा की चर्चा होती रही। अग्निहोत्रीजी संवेदनशील व्यक्ति थे और उनकी संवेदना कविताओं में झरती थी। उनकी कृति सत्यम एकमेव उनकी संवेदना और राष्ट्र के प्रति अनुराग की बानगी है। पद और सम्मान से हमेशा खुद को अलग रखने वाले अग्निहोत्रीजी को उनके चाहने वाले हमेशा सम्मानित करने में आगे रहे। मध्यप्रदेश शासन के अखिल भारतीय माणिकचंद्र वाजपेयी पत्रकारिता पुरस्कार २००८ के अलावा इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती का डॉ. नगेन्द्र पुरस्कार, राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास का स्वर्गीय बापूराव लेले स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार तथा सप्रे संग्रहालय भोपाल का लाला बलदेवसिंह सम्मान प्रमुख हैं। ७ जुलाई २०१० का वह दिन हर साल उनकी याद दिलाता रहेगा। अग्निहोत्रीजी का ऐसे समय में चले जाना पत्रकारिता और समाज दोनों के लिये एक ऐसे स्थान का रिक्त हो जाना है जिसकी पूर्ति शायद ही कभी हो। वे नवोदित पत्रकारों के लिये पाठशाला थे तो राजनीति करने वालों के लिये शिक्षक। उनकी महत्ता इसी बात से जाहिर होती है जब के. सुदर्शन ने सार्वजनिक सभा में यह बात स्वीकार किया था कि आज वे जो कुछ हैं, अग्निहोत्रीजी के मार्गदर्शन के कारण हैं। यह ठीक है कि अग्निहोत्रीजी हमारे बीच नहीं रहे किन्तु उन्होंने जो रास्ता तय किया था, उस रास्ते पर चलने की, उनके आदर्शाें को आगे बढ़ाने की जवाबदारी समाज की है। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं।)